नकल

शाम-ए-ग़ज़ल

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Shubhangani Sharma
Shubhangani Sharma 27 Jun, 2022 | 1 min read

अपने आप को हमनें नकल बना दिया,

असल रब सा था, अब एक *कल बना दिया।।


ज़िन्दगी गुलज़ार हो सकती थी,

भागते हुए पटरी पर, बोझिल बना दिया।।


ये दौड़ इस क़दर दौड़ी, कि खो दिया ख़ुद को,

कि अब नकल को ही असल बना दिया।।


*कल - मशीन


शुभांगनी शर्मा

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Shubhangani Sharma

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