सैर समय की

एक प्रयास हर युग में जाकर स्वयं को खोजने का....

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Shubhangani Sharma
Shubhangani Sharma 07 Apr, 2021 | 0 mins read
Travel with the time
सोचती हूँ सैर समय की,
कभी तो कर जाऊँ मैं।
पहुंच जाऊँ उस युग मैं, 
जहाँ तर जाऊँ मैं।।

टहल आऊं उस युग में, 
जब आज़ाद परिंदे होते थे।
काम, क्रोध, कपट की..
उत्पत्ति वहीं पर रोक पाऊं मैं...
वो फल जिसमें समाहित था सब,
उसको ही नष्ट कर आऊं मैं।।

कभी विचार ये भी आता है, 
वेदों में समा जाऊँ मैं...
कोई एक ऋचा बन कर, 
बस वेदों में अमर हो जाऊं मैं।।

भाषा ज्ञान विज्ञान की उत्पत्ति का भी
एक अंश काश बन जाऊं मैं।
निरंतर नूतन होती जाऊँ, 
कभी जीर्ण ना हो पाऊं मैं।।

उस युग में भी जाना चाहूँ, 
जिस युग स्वतंत्रता की बयार चली..
ना रूपसी, ना राजकुमारी, 
बस वीरों की तलवार बन जाऊं मैं।।

सत्याग्रह का हिस्सा बन कर, 
कुछ नाम अपना कर जाऊँ मैं।
ढाल शहीदों की बन पाऊं...
तो बेहतर हो। 
नहीं तो रक्षा कवच बन, 
कलाइयों पर सज जाऊँ मैं।।

चाहूँ कुछ कुरीतियों का, 
अंत कर आऊं मैं।
इतिहास के कुछ काले पन्ने, 
आमूल नष्ट कर जाऊँ मैं।।

चाहूँ मीरा के भजनों, और...
कबीर के दोहों में समा जाऊँ मैं।
या बुंदेले हरबोलों के,
सुर से सुर, मिलाऊँ मैं।।

काश मैं फ़िरसे बाबा की राजकुमारी, 
माँ की परी बन जाऊं मैं।
जैसे तुम समाय हो मुझमें समय, 
तुम्हारे हर क्षण में समा जाऊँ मैं।।

शुभांगनी शर्मा




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Shubhangani Sharma

shubhanganisharma

Comments

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  • Vinita Tomar · 3 years ago last edited 3 years ago

    Nice

  • Kumar Sandeep · 3 years ago last edited 3 years ago

    निःसंदेह एक उत्कृष्ट रचना👌👌

  • Shubhangani Sharma · 3 years ago last edited 3 years ago

    धन्यवाद विनीता जी और संदीप जी🙏🙏

  • Babita Kushwaha · 3 years ago last edited 3 years ago

    bahut badiya

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