कभी चुन्नी, कभी बुर्क़ा
कभी घूंघट से ढकते हो।।
मेरी परवाह तुम्हें कुछ ज़्यादा है,
या अपने ईमान से डरते हो।।
मुझसे इश्क बेपनाह है तुम्हें
बस यही दम भरते हो,
फिर क्यों भरे बाज़ार में...
मुझको बेपर्दा करते हो???
अभी कुछ रोज़ बाद ही ..
नवरात्रि आएंगी,
जागरण रहेंगे, हर चौक पर...
झांकियां भी सजाई जाएंगी ..
धोका हो जाएगा फिर मुझे...
तुम मेरा आदर करते हो...
पर सच तो ये है...
तुम अपने भगवान से डरते हो।।
कहते हो खूबसूरत लगती हूँ बहुत,
जब ढकी रहती हूँ...
फिर क्यों मेरी अस्मत को,
तार तार करते हो...
सच बोलो ना...
तुम कैसे इतना गिर सकते हो??
क्या तुम सच में अपने भगवान से डरते हो।।
ये कैसी ख्वाईश है तुम्हारी,
जो मेरे, मैं होने से, दरकिनार करते हो....
क्या तुम मेरे इंसान होने से भी डरते हो।।
मर्ज़ी को मेरी रौंद कर,
मेरे तन को मैला करते हो..
फिर हुजूम लगाकर,
मोमबत्तियां जलाया करते हो।।
अरे बुझा दो इन्हें भी...
तकलीफ ये कुछ ज़्यादा देती हैं...
क्यों बेवजह फिर
मेरी आत्मा का सौदा करते हो...
भगवान से तो क्या डरोगे...
क्या अपने ईमान से भी नहीं डरते हो...???
सच तो यह है, तुम मेरे अस्तिस्त्व से डरते हो...
खुद को साबित इसलिए,
अपनी हैवानियत से करते हो।।
हाँ ये सच है....
तुम मुझसे डरते हो।।
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