तुम कहते हो हम पहले से ना रहे,
बदलने की तुम्हारे लिए,
गुज़ारिश तुम्हारी ही थी।।
हमनें हर मोड़ पर,
थामना चाहा तुम्हें,
पर भागकर दूर जाने की...
ख़्वाईश तुम्हारी थी।।
हर रोज़ हम, गलते, टूटते,
बिखरते रहे...
तुम्हें बटोरने की ये...
नाकाम कोशिश हमारी थी।।
तुम्हें उंगलियों से तो,
छू लिया करती थी...
पर जो लपेटे थी तुम्हारी रूह को,
वो चादर तुम्हारी थी।।
ताउम्र तुम्हारा मरकज़ ए निगाह...
मेरा अदब ही रहा।
बस बेअदब होने की,
आदत तुम्हारी थी।।
जिस तरह तुम,
हक जताया करते थे मुझपर,
मेरी भी तो तुमपर...
उतनी ही हक़दारी थी।।
अब कहते हो मैं पहले सी नहीं रही,
मेरे अहम को संभालने की,
तुम्हारी भी तो ज़िम्मेदारी थी।।
तुम कामयाब, कामयाबी तुम्हारी,
फिर नाकामयाबी में,
मेरी क्यों हिस्सेदारी थी।।
मैं उठी तो दबा दिया तुमनें,
मेरे हर लफ्ज़ पर,
तुम्हारी पहरेदारी थी।।
यक़ीन करो तुम्हें सिर्फ़..
दो घड़ी बैठना था पास मेरे,
मैं सदियों से बस तुम्हारी थी।।
शुभांगनी शर्मा
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.