वो आशिक़ वो प्रेमी भी क्या खूब थे,
जो सनम के नहीं वतन के मेहबूब थे।।
कहने को तो वो ताने सरहद पर बंदूक थे,
वतन की रखवाली की ख़ातिर वो पुर ख़ुलूस थे।।
शुक्र उनका सदक़े हम उनके वसूक पे,
सांस चलती रहे वतन की उनके रसूख़ से।।
जान हथेली पर रखने का उसूल है,
ईंट का जवाब पत्थर से देने का सलूख है।।
लबों पर मुस्कुराहट इस बात का सबूत है,
ऐसे मेहबूब मेरे हर घर में मौजूद है।।
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