आज पितृों को विदा, सभी ने खुशी खुशी किया। दिन भर घर में चहल पहल का माहौल बना रहा। पकवानों की सुगंध से घर सराबोर रहा। सभी लोग बहुत प्रसन्न थे। क्योंकि आज से अधिक मास आरम्भ होना था। हम सभी रात को छत पर बैठकर बातें कर रहे थे तभी मेरी सासू माँ ने कहा, “हमें पितरों की सेवा इसी प्रकार से करनी चाहिए। और हर साल उनका इसी तरह से स्वागत और विदाई करनी चाहिए।“ तब मुझसे रहा नहीं गया जो बातें पिछले पंद्रह दिनों से मेरे मन में कौंध रही थीं आखिर वह मैंने उन्हें कह दी। मैंने कहा, “मां!! क्या यह आवश्यक है कि हम इसी प्रकार से पितरों की सेवा करें, पकवान बनाएं, रिश्तेदारों को बुलाएं। क्या वाकई इसका फ़ल पितरों के पास जाता है।“
मेरी मां ने कहा, “पता नहीं पर रीत तो यही है।"
तब मैंने उनसे कहा, “मां!! जब हम पिछली बार बुआ जी के घर गए थे उनके यहां यज्ञ तथा प्रवचन चल रहा था। जो कि पूरा आर्य समाज पद्धति से था। तब हमनें वहां प्रवचन में एक कथा सुनी। यदि आप कहें तो मैं आपको सुनाऊं।"
मेरी सासू मां ने सहर्ष से स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा,
“हां बिल्कुल, सुनाओ।"1
मैंने उनसे कहा, “सही सही तो पता नहीं क्योंकि छोटी बेटी परेशान कर रही थी उस समय। पर जितना मुझे याद है वह मैं आपको सुनाती हूं.........”
अब पुरातन काल की कथा है यह। कर्ण नाम का एक राजा हुआ करता था। वह राजा बहुत ही दानी और प्रतापी था। उसने अपने पूरे जीवन में सभी को स्वर्ण, रत्न, आभूषण और तरह-तरह के दान दिए। जब उसका देहांत हुआ तो अपने अर्जित पुण्य के कारण वह स्वर्ग में पहुंचा। परन्तु स्वर्ग में पहुंचकर वह देखता है कि उसे भोजन दिया तो वह आश्चर्य चकित रह गया। क्योंकि उसे स्वर्ण थाल में स्वर्ण मुद्राएं, स्वर्ण आभूषण और भी बहुत कुछ दिया गया परंतु वह यह सामग्री ग्रहण नहीं कर सकते थे।
उन्होंने स्वर्गाधिपति से पूछा कि, “मैं यह भोजन कैसे ग्रहण कर सकता हूं?” तब उन्होंने कहा, “राजा कर्ण!! जीवन भर तुमने यही दान दिया है, तो मरणोपरांत भी तुम्हें भोजन में यही दिया जाएगा।"
तब कर्ण ने कहा, “यह तो संभव ही नहीं है। इस प्रकार तो मैं यहां रह ही नहीं सकता। तब प्रभु ने कहा, “ठीक है! मैं तुम्हें पंद्रह दिवस का समय देता हूं। तुम पृथ्वी लोक पर जाकर अपने भोजन का प्रबंध कर सकते हो।"
यह बात पूरे नगर में फैल गई। सभी को यह पता चल गया कि कर्ण आ गये हैं। तब उन्होंने उनके स्वागत की तैयारियां चालू करें उन्होंने नगर की दीवारों पर जगह-जगह पर कर्ण के आने की सूचना लिखवा दी। “कर्ण आगत, कर्ण आगत”।
इस प्रकार कर्ण ने पन्द्रह दिनों तक लोगों की सेवा की और उन्होंने इन दिनों भूखों को भोजन कराया और इस बार उन्होंने दान में आभूषण नहीं बल्कि खाने-पीने की सामग्री दी। सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए तथा तृप्त होकर उन्हें आशीर्वाद दिया। पन्द्रह दिन पश्चात जब वे स्वर्ग गए तब उन्हें भोजन में अंततः अन्न ही दिया गया। पर समय के साथ साथ "कर्ण आगत" का अपभ्रंश "कनागत" हो गया।
मेरी सासू माँ ने यह कहानी बहुत ध्यान से सुनी। सुनकर वह भी मुस्कुरा दी। सही है “अन्न दान महा दान”। वह भी ज़रूरत मंदो को दिया जाए तो ज़्यादा बेहतर।
दूसरी बात सिर्फ हमारे कर्म ही हमारे साथ रहते हैं। इसलिए हमें जीवित रहते हुए सत्कर्म करना चाहिए।
मैं पितृपक्ष तथा उनके लिए किए गए जाने वाले दान पुण्य के विरोध में नहीं हूं, पर पितृपक्ष की आड़ में जो आडम्बर किये जाते हैं। वे मेरी समझ के परे हैं। शायद हम समय के साथ साथ “कर्ण आगत” का सही अर्थ और तात्पर्य हम भी समझ पाएं। हर व्यक्ति एवं परिवार इसके लिए एक पहल कर सकता है। मैंने एक प्रयास किया आप भी कीजिये।
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