कुछ दिनों से मन मेरी सुन नहीं रहा था…मुझे अज़ीब से ख्वाब आ रहें थे .. ख्वाब अल्हड़ नदियों के, बेख़ौफ़ पहाड़ों के, खुले आसमान के और एक नए जहान के….जहां मुझे एक अरसे जानामगर मुझे कुछ और ख्वाब भी आते हैं जैसे किसी पिंजरे के मानो मैं स्टेशन पर हूँ और एक के बाद एक ट्रैन मेरे सामने से गुज़रती जा रही है…और मेरे पास टिकट नहीं है क्यूँकि उतने पैसे नहीं थे …मुझे समझ नहीं आता मैं किस ट्रैन में चड़ूँगी या फिर रह जाऊँगी वहीं स्टेशन पर और कुछ लोग मुझे वापिस से पकड़ ले जायँगइतने मैं मेरी आँख खुल गई और मेरे मन में ये सवाल बैठ गया…की क्या वाकई ख्वाबों को पूरा करने के लिए ढेर सारे पैसे चाहिए?
क्यूँकि पैसे तो हमेशा ही जरुरत से कम ही लगते हैं…पैसे कब किसीके पास इतने हो पाए की उनसे सपनों की टिकट खरीदी जा सके…हो भी गए तो वक़्त नहीं रहेगा और ना शायद जिम्मेदारियों से फुर्सत…यानि सिर्फ पैसे काफ़ी नहीं या यूँ कहूँ की जितने भी हो काफ़ी हैं…ख्वाबों की टिकट तो खूब सारी हिम्मत से खरीदी जाती हैं…जिसमें बस चढ़ जाते हैं ट्रैन में और रास्ते में सोचते हैं की आगे क्या करेंगे और बस उतना काफ़ी हैं…तुम्हारी हिम्मत काफ़ी है…तुम काफी हो…
अगली बार मुझे सपना आया तो मैं हिम्मत करके ट्रैन पकड़ लूँगी और अगर ना आया तब भी ❤️
Paakhi🥀
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Wow! Full of positivity. 👏
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