और हमेशा की तरह तुम्हारे दायरे और मेरे ज़मीर की कश्मकश में हमारा वो टूटा-फूटा सा रिश्ता फिर कहीं दम तोड़ गया… लम्बा वक़्त हो चला…पर ना कोई कॉल, ना ही मैसेज...हम दोनों ने ही अपनी अपनी दुनिया में खुद को मशरूफ़ कर लिया… जैसे ना तो तुम्हें मेरी गली का रास्ता या उसमें मेरा घर या उस घर की छत पर खड़ी उस लड़की की कोई सुद हो और ना ही मुझे तुम्हें खो कर भी, तुम्हारे लौट आने की कोई उम्मीद … लेकिन वस तब तक जबतलक फिर किसी दिन इत्तेफ़ाक़न हम किसी मोड़ पर टकरा ना जाएं… हमारी आँखों में कई सवाल तो आएं पर तुम अपनी खामोशी से ही मेरा हाल पुछलो और मैं तुम्हारी आँखें पढ़कर तुम्हारी खैरियत लैलूं… घर आकर खुद से एक जंग करूँ और आखिर में हार कर तुम्हें चंद मैसेज करदूँ… तुम हम्म, हाँ में जवाब दो, कुछ लाज़मी कामों के बहाने शायद कॉल भी करदो...पर ना तो मैं वो बातें करूँ जो मुझे वस तुम्हीं से करनी थी और ना तुम उन्हें सुनना चाहो...और फिर तुम्हारे दायरे और मेरे ज़मीर की जंग में वही लम्बा सन्नाटा जगह ले ले ...क्या ताउम्र यही होगा?... या मैं कभी यकीन कर लूंगी की अब तुम्हारे नाम पर ही नहीं, तुम्हारी रूह में भी उसका हिस्सा है… पर अब ये बातें किससे कहूं… मीरा की तरह मेरे भी एहसास जायस नहीं हैं...
Paakhi
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