"पुस्तकें सही मायने में हमारी वह दौलत हैं, जो हम आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़कर जाते हैं। एक लेखक को समझने की वे ही सबसे अच्छे हथियार होते हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति के भी वे ही पक्के दस्तावेज़ होते हैं। किताबों के द्वारा न केवल हमारी कल्पना शक्ति का विकास होता है, बल्कि भाषा में सुधार करके वे हमें सभ्य और संस्कृत बनाने का काम भी करती हैं। "
- मौमिता बागची (माँ की डायरी)
आज मौमिता बागची द्वारा लिखित किताब 'माँ की डायरी' जो कि एक लघु उपन्यास है पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसमें ऊपर लिखित यह पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद आई। हालांकि किताब तो मेरे पास काफी पहले आ गई थी लेकिन तबियत ठीक ना होने के कारण पढ़ने में विलंब आ गया।
पूरी किताब मैंने एक ही वक्त में खत्म की, क्योंकि मुझे बलवीर से ज्यादा उत्सुकता थी जानने की, कि उसे सच्चाई कब पता चलेगी। जिस सच का उद्घाटन करने की बात इसमें की गई वह मुझे शुरूआत में ही समझ आ गया था, कुछ खुराफाती दिमाग कहिए या बचपन से ही तहकीकात, सी.आई.डी जैसे चित्रपट देखने का असर 🙈।
जिस घिनौनी सच्चाई का इस किताब में बखान किया गया है वह आज भी कहीं ना कहीं हमारे समाज में प्रचलित है, बस वर्क सिर्फ इतना है कि सफेदपोश चेहरों के पीछे आप यह सच्चाई पहचान नहीं सकते कभी भी। मैंने अपने बड़ों से सुनी हुई पड़ोस की कुछ घटना भी इससे जुड़ी हुई पाई हैं।
उस समय का तो मैं फिर भी समझ सकती हूँ , जिस समय का किताब में उल्लेख किया गया है, तब औरतों का ना तो ज्यादा बोलने की आजादी थी ना ही अपनी मर्जी से जीने की, लेकिन आज भी यह सब क्यों झेला जाता है समझ नहीं आता। क्यों नहीं हम अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाना सिखा पा रहे हैं अपनी बच्चियों को, क्यों आज भी माँ-बाप को ससुराल से लौटकर आई बच्ची बोझ ही लगती है। और यह तो उन लोगों का हाल है जो हमारे समाज में शिक्षित लोगों की श्रेणी में आते हैं। वर्ना सच्चाई तो इससे ज्यादा भयावह है।
हालांकि यह कह देना कि लड़की को पढ़ा-लिखा देने भर से वह अपने खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठा सकती है गलत होगा, क्योंकि पढ़ी-लिखी महिला तो हमारी किताब की नायिका भी थी, परन्तु यह तब तक संभव नहीं है जब तक हमारे अपने इसमें हमारा साथ ना दें। अपनों के सहयोग से जो अंदरूनी ताकत प्राप्त होती है वह विषम से विषम स्थिति को झेलने में और उससे उबरने में बड़ा योगदान देती है।
मुझे अन्वेषा का किरदार भी बहुत पसंद आया और अंत में उसका यह कहना कि "बच्चे खुराना कहलाएंगे" दिल को छू जाता है।
बस बलवीर का अपनी माँ पर शक करना और वह भी उस पिता के कहने पर जिनकी हरकतों को वह बखूबी समझता था मन को नहीं भाया, क्या इतना ही भरोसा था उसे अपनी जन्मदात्री पर, जिसने उसके लिए सबकुछ किया और बलवीर को उसी माँ पर विश्वास करने करने के लिए दूसरों के तथ्य की जरूरत पड़ी। यह सोचने पर मजबूर करता है, क्या सच में यही हमारे पुरुष प्रधान समाज की सच्चाई है। बस यही प्रश्न कौंधता है दिमाग में?
मौमिता जी को बहुत-बहुत बधाई ❤, समाज की गंदी सोच की सच्चाई को उकेरती इस किताब के लिए।
धन्यवाद।।
✍शिल्पी गोयल
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