सोचती हूँ कैसे और क्या, शब्दों की खेती करूँ
शब्द तो अनमोल होकर भी, आज बेमोल हैं
जाने कितने रिश्ते हुए बेजार, सहकर इन शब्दों का वार
ढाल बना इन शब्दों को, अपना कसूर भी छुपाया है
इन शब्दों से ही तो तुमने, औरत को नीचा दिखाया है
तुम चीखते हो चिल्लाते हो
अपने झूठ को सच बनाने की खातिर
क्या अपने अन्तर्मन को जवाब दे पाते हो
चाहे बन लो कितना भी शातिर
कहते हैं बड़ी तेज लड़की है
पिता या पति तो बड़ा सीदा है
अरे तुमको क्या करना है जायदाद का
तुम्हारा अपना भी क्या कोई सपना है?
तुम तो रह लो किराए के मकान में
बाप-दादा की हवेली पर तो हक अपना है
ईश्वर करे तुमको कोई औलाद ही ना हो
फिर किस के लिए तुमको यह धन एकत्र करना है?
चलो सबकुछ रख लिया तुमने अपने पास
कर दिया किसी अपने को बहुत उदास
क्या अपने साथ वो सब
ईश्वर के घर लेकर जाओगे
क्यों भूल जाते हो अपने कर्मों की सजा
तुम इसी जन्म में पाओगे
हो बड़े पढ़े-लिखे तुम
दुनियादारी का पाठ भी पढ़ाना जानते हो
जिंदगी बहुत छोटी है
इस कथन को भी तुम मानते हो
पर बात जब न्याय की आती है
तुम क्यों हार मान जाते हो
अपने ऐशो-आराम की खातिर
दूसरे का हक भी मार जाते हो
क्या शिक्षा दोगे अपने बच्चों को
बेटा बड़ा होकर अपनों का हक कैसे खाना है
इतने से भी पेट ना भरे तो
कहाँ चोरी-डकैती डालने जाना है
संभालते हैं लोग उच्च संस्थानों को
अपना जमीर संभाल नहीं पाते हैं
नीचे गिर जाते हैं अगर इतना
क्या यही सबको सिखाने जाते हैं।
✍शिल्पी गोयल(स्वरचित एवं मौलिक)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Very good
Thank you
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