सर्दियों की दोपहर में छत या आँगन में बैठकर धूप सेंकने का अपना अलग ही आन्नद होता था लेकिन आजकल ना तो किसी के पास समय है और ना ही घरों में इतनी खुली जगह।
स्टेटस सिम्बल और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए खुले आँगन की जगह अब बंद लाॅबियों ने ले ली है और शहरी परिवेश में छत की जगह बालकनी ने।
एक-दूजे से आगे निकलने की होड़ हो या बढ़ती महंगाई, घर के ज्यादातर सब लोग नौकरी के लिए सुबह निकलते हैं और देर रात तक घर लौटते हैं तो कहाँ किसी के पास समय रहता है धूप में बैठने का। रही बच्चों की बात तो पहले स्कूल फिर ट्युशन और बचा हुआ समय हाॅबी क्लासेस में ही निकल जाता है।
मुझे धूप में बैठना बचपन में भी पसंद था और आज भी बेहद पसंद है। बचपन में अपनी दादी के साथ खुले आँगन में धूप के मजे लेते थे, कभी रेवड़ी-मूंगफली खाना तो कभी नमक-नींबू लगाकर गाजर-मूली और साथ में दादी के बचपन के किस्से सुनने में बड़ा मजा आता था।
आज मेरे पास बैठने के लिए उतना बड़ा खुला आँगन भी नहीं है और दादी भी नहीं, लेकिन बचपन की वो आदत छूटी नहीं। बालकनी में ही धूप का आन्नद उठाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। बच्चों के स्कूल से आ जाने के बाद उन्हें भी धूप में ही बैठाकर खाना खिलाना और स्वयं भी खाना, इस बहाने बच्चों का भी सर्दियों की धूप के साथ नाता जोड़े रखने की भरपूर कोशिश की जाती है।धूप में बैठकर ठंड से तो राहत मिलती ही है, संग-संग धूप विटामिन डी का एक अच्छा स्त्रोत मानी जाती है जितना विटामिन डी आप किसी दवाई से हासिल नहीं कर सकते उससे कहीं ज्यादा धूप के सेवन से कर सकते हैं और आपकी हड्डियों को इससे मजबूती भी मिलती है।
धूप का एक फायदा मुझे यह भी मिला कि मैं अपनी दादी-नानी से अनेकों कहानियाँ, उनसे जुड़े अनेकों किस्से सुन पाई और ना-ना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का स्वाद भी चख पाई जैसे तिलकूट वो भी हमाम दस्ते से बना हुआ जिसका स्वाद ही कुछ अलग होता है।
आजकल जहाँ सर्दियों में हम सब ब्रांडेड गर्म कपड़ों का ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं वहीं एक समय था जब हम सब बच्चे बड़े चाव से दादी-नानी के हाथ से बने हुए स्वेटर पहन कर इतराते थे।
नानी-दादी के हाथ के बुने हुए स्वेटर का कोई मुकाबला ही नहीं था और ना ही है, मन भावन डिजाइनों से सजे स्वेटर, मोज़े, स्कार्फ और ना जाने क्या-क्या।
सब बच्चे अपनी पसंद के सुन्दर-सुन्दर डिजाइन डलवाते थे, जैसे मुझे सबसे अधिक वो स्कार्फ भाता था जिस पर दोंनो तरफ ऊन से चोटियाँ बनाई जाती थी, उसे पहन कर मैं वैसे ही खुश होती थी जैसे कोई बच्ची अपने असली लंबे बालों से बनी दो चोटी बांधकर होती थी।
क्योंकि मेरे बाल बचपन में मम्मी छोटे-छोटे रखती थी तो मुझे कुछ ज्यादा ही शौक रहता था उस दो चोटियों वाले स्कार्फ का और उस पर वो काले रंग का हो तो क्या कहने।
एक बार की बात है,
मेरी बुआ को ऊन से स्वेटर, मोज़े और लड्डू गोपाल जी के लिए गर्म कपड़े बनाने का बड़ा शौक था, मेरी दीदी (बुआ जी की बेटी) को उनके हाथ के मोज़े बड़े भाते थे और इसीलिए उन्होंने दीदी की शादी में देने के लिए मोज़े बनाए थे, जो बहुत ही सुन्दर थे।
मैं उस वक्त्त यही कोई पाँच या छः बरस की रही होगी, मुझे वो मोज़े बहुत पसंद आए तो मैंने बुआ जी से बोल कर अपनी गुड़िया के लिए भी वैसे ही मोज़े बनवाए।
मेरी गुड़िया थोड़ी बड़ी थी लगभग एक महीने के छोटे बच्चे जितनी।
वैसी ही एक गुड़िया मेरी चचेरी बहन के पास भी थी, वो चाहती थी ऐसे ही मोज़े उसे मिल जाए।
समय कम होने की वजह से बुआ ने कहा अगली बार उसके लिए भी बना देंगी, पर उसे तो वही मोज़े चाहिए थे।
हम दोंनो ही छोटी थी इसलिए दोंनो जिद्द पर अड़ गई।मैंने कहा बुआ ने मेरी गुड़िया के लिए बनाए हैं इसीलिए मैं वो मोज़े उसे नहीं दूंगी।
उससे छुपाने के लिए मैंने वो मोज़े दीदी की शादी वाली अटैची में रख दिए और रख कर भूल गई। शादी की तैयारियों के बीच किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया।
दीदी शादी करके ससुराल चली गई। उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं पता था। जब सामान खोलने की रस्म अदा की जानी थी तब उनकी नन्द ने वो अटैची खोली जिसमें वो मोज़े मैंने छुपाए थे।
जब उन्होंने दीदी के मोज़ों के साथ वो छोटे-छोटे मोज़े देखे तो वो बोली भाभी तो पहले से ही छोटे लल्ला की तैयारी कर-कर लाई हैं और सब ठहाका मारकर हँस पड़े।दीदी शर्म से पानी-पानी हो गई।
आज भी जब वो किस्सा याद आता है तो जीजू दीदी के मज़े लेने से पीछे नहीं हटते और दीदी भी बुरा नहीं मानती।
इसी बहाने सबको खुश होने का एक मौका मिल जाता है।
और मैं भी अपनी बचपन की इस बात को याद कर मुस्कुराए बिना नहीं रह पाती हूँ।
ना जाने ऐसी कितनी ही अनोखी और ना भूलने वाली यादें जुड़ी है मेरी सर्दियों से।
धन्यवाद। ©️शिल्पी गोयल
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत अच्छा लिखा
जी शुक्रिया
Please Login or Create a free account to comment.