जब मन चाहा पवित्र हो जाती
जब मन चाहा अपवित्र हो जाती
कहो कैसा है यह संस्कार।
कन्या हूँ तो पूजी जाती
औरत बन होता प्रतिकार
अपने ही घर में मुझ पर
सदियों से होता यह अत्याचार।
प्रतिमा रूप प्रदान कर पूजते हो देवालयों में
उन्हीं देवालयों में जाने पर फिर बंदिश लगाते हो
वंश बेल बढ़ाने की खातिर ब्याह कर तो ले आते हो
परन्तु पीड़ा के क्षणों में साथ ना दे पाते हो।
जिस लाल रंग को तुम
शुभ का प्रतीक जानते हो
उसी लाल रंग के कारण
मुझको अशुभ मानते हो।
जिस धर्म से मिला हमें सम्पूर्णता का आधार
काली पन्नी में छिपाकर देते हो उसका उपहार।
जिस धर्म बिना ना नारी पनपी
जिस धर्म बिना हुआ ना नर का जन्म
कहो कैसे अपवित्र हुआ वह मासिकधर्म।
जब मन चाहा पवित्र हो जाती
जब मन चाहा अपवित्र हो जाती
किसने दिया तुमको यह अधिकार।
- शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)
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