आज सुबह से आँख में थोड़ी बेचैनी हो रही थी तो सोचा डाॅक्टर को दिखा लूँ, चली गई दिखाने, नम्बर लगवाकर बैठ गई सीट पर इंतजार करने के लिए अपनी बारी का।
वैसे भी हम लोग इंतजार ही तो करते हैं हर बात का कि, काश! कुछ चमत्कार हो जाए सब अच्छा हो जाए, खुद कुछ करना नहीं चाहते, यही हमारी सच्चाई है।
चलिए छोड़िए, फिलहाल बात करते हैं हॉस्पिटल की जहाँ इस वक्त मैं भी इंतजार ही कर रही थी।
चारों तरफ नजर घुमाकर देखा बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी हॉस्पिटल में तो मन में थोड़ा एहतियात हुआ कि चलो अच्छा है ज्यादा लोग तकलीफ में ना हो तो ही सही है।
कुछ देर बाद एक बुजुर्ग दंपति, उम्र अंदाजा साठ से सत्तर के बीच रही होगी हॉस्पिटल में आए। दोंनो रिसेप्शन पर गए, नम्बर लगवाया और अंकल जी तो प्रतीक्षा कक्ष में हम सब के पास आकर एक जगह बैठ गए। वहीं आंटी जी हाथ में डाॅक्टर का पर्चा लिए चहलकदमी करती नजर आई। उनकी इस हरकत से यह तो समझ आ गया था कि वो पहले भी दिखाने आ चुकी हैं यहाँ।
अंदर से मेरा नाम गूंजा, चलिए हमारा इंतजार तो खत्म हुआ हम तो चले गए दिखाने, एक कक्ष में जांच होने के बाद बाहर बैठा दिया गया, अभी डाॅक्टर के पास जाने में वक्त था तो मेरा ध्यान फिर से उन्हीं अंकल-आंटी पर जाकर ठहर गया।
"अरे यह क्या", दिमाग से आवाज आई मुझे तो लगा था आंटी जी दिखाने आई हैं पर नहीं यहाँ तो अंकल जी दिखाने आए थे। आंटी जी की चहलकदमी से एक बार भी यह एहसास नहीं हुआ कि उनको नहीं अंकल को चैकअप करवाना है, अंकल जी तो बड़े इत्मीनान से बैठे हुए थे तब प्रतीक्षा कक्ष में।
अब अंकल जी तो चले गए जांच कक्ष में, जहाँ कुछ देर पहले मैं गई थी। मैं उस कक्ष के बाहर ही बैठी थी तो देखा जब भी वो जांच करने वाले भैय्या कक्ष से बाहर जाते अंकल जी इशारा करते और आंटी जी जो प्रतीक्षा कक्ष में ऐसी जगह बैठी थी कि उन्हें वहाँ से अंकल जी साफ दिखाई पड़ रहे थे फौरन अंकल जी के पास पहुँच जाती। और ऐसा एक बार नहीं अपितु तीन से चार बार देखा मैंने, फिर मेरा नम्बर आ गया और मैं डाॅक्टर के कक्ष में चली गई।
मेरा चैकअप पूरा हुआ, मामूली सी एलर्जी बताई डाॅक्टर ने, दवा लिख दी और मैं अपनी दवा लेकर घर आ गई। अंकल-आंटी अब भी वहीं थे।
मैं बहुत देर तक उनके बारे में सोचती रही और तभी मेरा मन किया कि इनके बारे में लिखूँ। आंटी जी के चेहरे पर जो भाव थे वो चिंताजनक नहीं थे अपितु जिससे हम बहुत प्यार करते हैं उसके लिए जो अपनेपन की भावना, जो परवाह की भावना होती है, जो प्रेम उभर कर आता है ना चेहरे पर वैसे ही कुछ मिले-जुले से भाव थे वो।
मुझे एक अजीब सा गुदगुदाने वाला एहसास हुआ, बस यही कह सकती हूँ, क्योंकि अपनी उस भावना को क्या नाम दूँ मुझे भी समझ नहीं आ रहा है।
ऐसी परवाह आजकल के जोड़ों के बीच बहुत कम देखने को मिलती है, अगर ना के बराबर कहूँ तो गलत नहीं होगा और शायद इसीलिए पहले की अपेक्षाकृत तलाक आजकल ज्यादा चलन में आ चुका है। शादी-ब्याह को गुड्डा-गुड्डी का खेल समझा जाने लगा है, हर कोई अपनी शर्तों पर जीना चाहता है, एक-दूसरे के लिए कोई जीना नहीं चाहता।
लेकिन आज उन बुजुर्ग दंपति को देखकर यह एहसास हुआ कि जो मोहब्बत हमारे बड़ों ने निभाई है उसकी अगर लेश मात्र भी हम कोशिश करें तो जाने कितने रिश्ते संवर जाएँ और टूटने से बच जाएँ।
कुछ पंक्तियाँ आपके साथ यहाँ सांझा करना चाहूँगी जो उनके प्रेम की और एक-दूसरे के प्रति आत्मसमर्पण की भावना को देख कर अनायास ही मन में उभर आई,
आज भी मुझे तुम लगती हो बड़ी प्यारी।
जैसे खिली हों हर तरफ अनेकों क्यारी।।
तेरा 'अजी सुनते हो' कहकर पुकारना।
कर जाता है मुझको आज भी दीवाना।।
तेरी मेरी कहानी यारा है सुहानी बड़ी।
तुझसे जुड़ी है मेरे वजूद की हर कड़ी।।
बनाकर एक घरौंदा सपनों का नया।
सेवा निवृत्त हो करेंगे हम बसेरा वहाँ।।
बिताएंगे बगीचे में हम वक्त साथ-साथ।
चाय की चुस्कियों के संग होगी हर बात।।
मेरे साँसों की हर महक में तेरा बसेरा।
तेरे बिन कुछ नहीं है यह जीवन मेरा।।
तेरे संग बिताना चाहूँ मैं चारों पहर।
तुझमें ही है बसा मेरा सारा शहर।।
अपना अक्स तलाशने की ना जरूरत मुझे।
तेरे साथ से ही है सबकुछ हासिल मुझे।।
है अंतिम इच्छा बस इतनी सी मेरी।
हाथों से हाथ तेरा यह ना छूटे कभी।।
आखिरी सांस तक हो तू साथ मेरे।
तभी मुकम्मल होंगे हमारे सात फेरे।।
कितना खूबसूरत सा रिश्ता सांझा करते हैं दो अजनबी, जिसे आपसी समझ और सूझबूझ से जीवंत बनाया जा सकता है।
लेकिन पता नहीं हमारी आजकल की पीढ़ी को क्या होता जा रहा है, आपसी समझ खोती जा रही है, एक-दूसरे से अपेक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं और खुद कुछ करना नहीं चाहते, किसी को तो पहल करनी होगी वर्ना ये जन्म-जन्मांतर के रिश्ते यूँ ही बिना वजह अंहकार की भट्ठी चढ़ते जाएँगे।
बरबस मन में यह सवाल उभर आया,"क्या यह जन्मों का रिश्ता सिर्फ दो लोगों को बाँधने भर का होता है या दिल से जिए जाने का?"
जवाब सभी का यही होगा "दिल से जिए जाने का"। लेकिन असल में जीते कितने लोग हैं यह आप किसी और से नहीं बल्कि अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं से पूछ कर देखिए, सच्चाई खुद-ब-खुद हमें मालूम हो जाएगी।
जब जीने का रिश्ता है तो जियो ना, रोका किसने है, सिर्फ आपके अहम् ने, हटाइये यह अहम् वहम् और खुलकर साँस लिजिए, जिंदगी इतनी भी लम्बी नहीं है कि इसे अपने अहम् पर कुर्बान कर दिया जाए। इसीलिए एक-दूसरे को समझकर देखिए एक नये व्यक्तित्व वाले व्यक्ति से पहचान हो जाएगी आपकी। फिर देखिएगा कितना परिवर्तन आता है सबके जीवन में और कितनी खुशहाली भरी भन जाती है यह जीवन की राहें।
उन अंकल-आंटी की तरह एक बार, बस एक बार, एक-दूसरे पर जान छिड़क कर देखिए आपका मन खुद-ब-खुद गुनगुनाएगा,
क्या?
नहीं पता?
अरे यही,
कि...........
" ए मेरी जोहरा जबीं
तुझे मालूम नहीं
तू अभी तक है हसीं
और मैं जवान,
तुझपे कुर्बान
मेरी जान,मेरी जान।"
तो आइए आप और हम भी मिलकर एक छोटा सा प्रयास करें और अपना सहयोग दें अपने और अपने करीबी लोगों के इस बेगाने रिश्ते को जन्मों के रिश्ते में बदलने का।
(नोट-मेरा लेख कहूँ या कहानी कहूँ या अनायास उभरी कुछ पंक्तियाँ, आपको कैसी लगी बताइएगा जरूर, क्योंकि यह सिर्फ कल्पना मात्र नहीं है, उन अंकल-आंटी का चेहरा आज भी मुझे अच्छे से याद है।)
धन्यवाद।।
-शिल्पी गोयल(स्वरचित एवं मौलिक)
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