घर की व्यस्तता से कुछ पल फुर्सत के चुरा,
देखा जो खिड़की से झांककर बाहर का नजारा।
आम के बगीचे में था,
नन्हे मुन्ने बच्चों ने एक-दूजे को पुकारा।
कभी लड़ते थे- कभी झगड़ते थे,
फिर भी संग खेलने की जिद्द वो करते थे।
देखकर उनका प्यार और तकरार,
जाने कब खुल बैठे मेरे अतीत के द्वार।
जिस दोस्त ने बीज खेलते वक्त
धक्का देकर मुझे गिराया था,
घुटने से बहते लहु को देखकर
घर पहुँचाने का जिम्मा उसी के सिर आया था।
हालांकि, मैंने भी गुस्से में एक थप्पड़ उसे लगाया था,
फिर भी, चोट मेरी देखकर
अश्रु तो उसकी अँखियों से भी आया था।
पल में मुँह फुलाते थे-पल में मान जाते थे,
रिश्तों की अहमियत ना सही
प्यार की भाषा मगर समझ जाते थे।
जैसे-जैसे बड़े होते गए-प्रेम के सब भाव खोते गए,
व्यस्तताओं से घिरकर हम-
मनुहार करना तो छोड़ो नाराज होना भी भूलते गए।
उम्र भर को ना सही, कुछ पल ही सही
आओ बच्चों संग बच्चा बन जाएँ,
खेलें लुका-छिपी कुछ इस तरह हम
शायद अपने मन की छिपी कोई तह पा जाएँ।
आओ, एक बार फिर लटके पेड़ों से कहीं
कहीं झूलों का हम फिर से संग पाएँ,
शायद कुछ इस तरह ही सही
अपना खोया हुआ स्वास्थ्य हम पा जाएँ।
नाराज है हम बरसों से जिनसे
चलो एक बार फिर उनको मनाएँ,
माफी माँगे इस अदब से कि
सब गिले-शिकवे वो भी भूल जाएँ।
जीवन के यह अनमोल क्षण, काहे को यूँ व्यर्थ गवाएँ
आओ बच्चों संग फिर से बच्चा बन जाएँ।
माना बच्चा होना आसान नहीं होता,
लेकिन बच्चों को बचपन पर गुमान नहीं होता।
बचपन की यारियाँ ना देखती धन और जात,
बचपन की रह-रहकर याद आती है हर एक बात।
उफ्फ,
इस निगोड़ी कूकर की सीटी ने अतीत से बाहर ला पटका,
चलें लगाना होगा हमें अब तो दाल में तड़का।
कहती हैं तड़के में मिली दाल और सब्जियाँ,
अब तो हटा दो अपने मन पर पड़ी पाबंदियाँ।
जैसे हम रल-मिल जाती हैं,
वैसे ही तुम भी रल-मिल कर बनाओ एक ऐसी माला
जिससे खुल जाए मन पर पड़ा हर एक ताला।
बस इसीलिए,
पुरानी यादों की एल्बम एक बार फिर जो खंगाली,
हर मुख पर पाई मैंने वही मुस्कान निराली।
बचपन जीने की फिर से मन में अब ठानी है,
जिंदगी है बेहद खूबसूरत,
हाँ, मैंने फिर से मानी यही बात पुरानी है।
✍ शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)
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