मशरूफ है जमाना इस कदर
गैरों की क्या औकात
इसे ना खुद की फिक्र;
अक्सर सोचती हूँ बैठकर
क्या कोई नहीं जिससे
बाँट सकूँ
कुछ उल्फत भरे पल;
आओ बाँटे ये पल
छोटे बच्चों के संग
जिन्हें आज का डर
ना कल की फिक्र;
कुछ अपनी कहूँ
कुछ उनकी सुनूँ
शायद मिल जाए कोई हल;
इतनी तेजी से जीवन जीने का क्या फायदा
ना ही कोई तहजीब
ना ही कोई कायदा;
मशरूफियत इंसान को
पत्थर दिल बनाती है
पर बिना जिंदादिली
जिंदगी कहाँ जी जाती है;
इसलिए जहाँ मिले-जैसे मिले
चुरा लो अपने लिए
कुछ उल्फत भरे पल;
ताकि जिन्दा रहे जिंदगी
और निकलते रहें कुछ हल।
- शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)
Comments
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Nice
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