#republicday
मुझे लिखने थे आज कुछ जज़्बात अपने देश के लिए,
करने थे कुछ वादे पूरे जो बचपन में थे स्वयं से किए।
हर साल गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराते थे स्कूल में,
झंडा फहराने से ज्यादा मन मचलता था
प्रसाद में मिलने वाले लड्डुओं के लिए।
कहाँ बाल मन समझ पाता था तिरंगा है कितना खास,
बड़े होते-होते समझ पाए तिरंगे के मान का एहसास।
बेशक अहमियत ना जानते थे
हाँ, लेकिन इतना जानते थे
तिरंगे का सदा आदर है करना,
नहीं इसके सम्मान संग कोई समझौता है करना।
जब भी देखते कहीं धरा पर गिरा झंडा
उठाकर उसे सम्मान संग सीने से लगाया है,
मन में जाने कैसा एक अजब सा सूकून पाया है।
सुनकर आवाज दूर कहीं जन-गण-मन की
खुद-ब-खुद कदम सीधे खड़े हो जाते हैं,
बच्चों को राष्ट्रगान की अहमियत समझाते हुए
हम स्वयं आज भी सधकर खड़े हो जाते हैं।
छोटे-बड़े का भेद मिटाकर सबको समान बतलाया,
छब्बीस जनवरी 1950 को जब संविधान प्रभाव में आया।
बाबा साहब का अथक प्रयास इस तरह से फिर रंग लाया,
पर क्या हमने सच में इन प्रयासों को है सफल बनाया??
हर छब्बीस जनवरी पर सोचती हूँ मैं,,
बीते वर्षों में हमने क्या खोया, क्या पाया??
क्या जात-पात का भेद मिटाकर इंसानियत का फर्ज निभाया??
क्या भूखे पेट की खातिर मजदूरी करते बच्चों को रोटी हमने उपलब्ध करवाया??
क्यों बाल मजदूरी का श्राप अब तक ना हमारे देश से है मिट पाया??
सिर्फ तिरंगे को सीने से लगाकर,,
ऊँचे-ऊँचे भवनों पर फहराकर,,
इसकी शान नहीं बढ़ेगी,
इसकी शान बढ़ाने को शुरुआत स्वयं से करनी पड़ेगी।
बंद करो छोटी बच्चियों से घर पर काम करवाना,
बंद करो दुकानों पर बच्चों से चाय मंगवाना।
बंद करो स्वयं को ऊँचा समझ दूसरों को नीचा दिखलाना,
बंद करो बच्चियों के जीवन से शिक्षा का अधिकार हटाना।
तभी सम्मानित होगा तिरंगा प्यारा
गूंज उठेगा फिर यह नारा
"तीन रंगों का यह ध्वज हमारा
सिखलाए मिलजुल कर रहना।
सजे हर देशवासी के मस्तक पर
वीरता स्वरूप अशोक चक्र सा गहना।।"
जय हिन्द।।
✍शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)
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