मेरे मन ने की एक दिन
मुझसे छोटी सी फरमाईश,
कहा कभी तो पूरी कर दो
मेरी भी कोई ख्वाहिश।
मैंने मन से पूछा आखिर क्या चाहते हो तुम,
क्यों हररोज एक नई दस्तक दे जाते हो तुम।
फिर उसका जो जवाब मुझ तक आया,
सोचने पर मैंने खुद को ही मजबूर पाया।
अन्तर्मन ने बूझा मुझसे -
कहो आजकल का यह कैसा नया सा चलन है?
मासूम बच्चों को अकेला सुलाने में क्या बड़प्पन है?
कितने बच्चों का मासूम बचपन यूँ ही खो जाता है?
बच्चा बड़ा होने से पहले ही क्यों बड़ा हो जाता है?
अक्सर अकेलापन बच्चों को इस कदर डराता है,
अपने आसपास उन्हें डरावना संसार नज़र आता है।
सन्नाटे को चीरती रहती है डरावनी सी हर आवाज,
दिलाती है हर पल किसी के साथ होने का एहसास।
अभिभावक जाने क्यों उनकी बातों को
हमेशा नजरंदाज सा कर देते हैं?
क्यों समझने की चेष्टा नहीं करते
बच्चे किस मानसिक परिस्थिति से गुजरते हैं?
इन्हीं एहसासों के साथ मासूम बच्चे
जीने की आदत डालते हैं,
क्यों भूल जाते हो तुम मासूम बच्चे
गहन हिफाजत माँगते हैं।
बच्चों को समझने की खातिर
अभिभावक को निभानी होगी अपनी जिम्मेदारी,
इसके लिए सर्व प्रथम प्रयास कर
समाप्त करनी होगी मध्य में उत्पन्न यह दूरी।
डर के अनदेखे साये से बच्चों को दूर अगर करना है,
सबसे पहले बच्चों को उनका बचपन वापिस करना है।
बातें सुनकर उसकी मेरी आँखें हो गई नम,
बच्चों की चिंता से काँप उठा मेरा अन्तर्मन।
उथल-पुथल मची है भीतर सोचकर यह सब,
बाहर एक उदास खामोशी सी छाई है।
इस दुविधा का अंत जाने होगा कब,
पीछा करती इन सवालों की परछाई है।
क्यों अब तक किया है हमने
बच्चों के बचपन को नजरंदाज,
काश पहले समझा होता मन को
बच्चों की खुशियों का पहरेदार।
उसकी तो बस यही एक छोटी सी माँग थी,
मैंने बेवजह ही उसको लगा दी डाँट थी।
चाहा था उसने गुमी हुई खुशियों को खोजना,
जिससे चारों तरफ हो मुस्कुराहटों का खजाना।
अब पूरी हो पाई उसकी यह छोटी सी फरमाईश,
खुश हो गया मन,कहकर अपनी छोटी सी ख्वाहिश।
हमारा मन कहता रहा बस इतना सा फसाना,
जिसे हमने ना समझा और ना ही जाना।
मुट्ठी में बंद है बच्चों की खुशियों का खजाना,
जिसे हमने अब तक ना खोला ना पहचाना।
शायद किसी दिन किसी पल यह कोहरा छटेगा,
शायद कल एक नयी सुबह का आगाज होगा।
शायद यह बाहरी दिखावा बचपन के आड़े ना आएगा,
शायद बचपन फिर से अपनों की गोद में मुस्काएगा।
इसी उधेड़-बुन में जाने कब
नींद के आगोश में समा जाती हूँ,
दूर कहीं बच्चों की अलबेली दुनिया में
बच्चा बन मैं भी खो जाती हूँ।
जहाँ बच्चों को ममता के आँचल में
सुकुन से सोया देख मैं हर्षाती हूँ,
और पिता की छाँव तले बैठा देख
हर तकलीफ और गम से जुदा पाती हूँ।
- शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)
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