उलझती सी जा रही इस दिखावे की दुनिया में। अब घुटन शुरू हो चुकी है।अब तक जो था बर्दाश्त हो रहा था लेकिन अब मेरा मन मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर रहा ये सब।थक गया है वो भी इन गांठों को सुलझाते सुलझाते।।एक छोर सुलझाओ तो दूसरा छोर उलझ जाता है।भुलभुलैया जंगल है ये।इस जंगल से मैं बाहर निकलना चाहती हूं।लोग पता नहीं कैसे दिखावे की जिंदगी को आनंदपूर्वक जी लेते हैं और मैं विरोध करूं तो मेरे माथे पर बेवकूफ होने का मुहर लगा देते हैं।क्या सीधी और सच बात कहना बेवकूफ होने की निशानी है।एक क्षण को ये सब मुझे परेशान करता है लेकिन दूसरे ही क्षण मेरे अंदर से एक आवाज आती है "" अहम ब्रह्मस्मि ""।
हां तुम्हारे लिए होता होगा ये बेवकूफ जैसा काम।लेकिन मुझे गर्व है अपने इस मूल स्वभाव पर।मुझे गर्व है कि मैं अपनी बात बिना किसी घुमाव के सीधा कह पाती हूं बिना किसी स्वार्थ से जुड़े परिणाम की चिंता किए बिना।मुझे गर्व है कि मेरे हृदय में सत्य और निश्छलता निवास करती है क्यों कि वो इतना पवित्र है कि वहां मेरे ईश्वर रहने आते हैं वो ईश्वर जिसको तुम मंदिरों में ढूंढ़ते फिरते हो।वो ईश्वर जिसके लिए तुम बड़ा बड़ा यज्ञ करते हो,वो ईश्वर जिसके लिए तुम उपवास रखते हो हां वहीं ईश्वर जिसके लिए तुम इतने कर्म कांड करते हो वो ईश्वर मेरे हृदय में रहते हैं वो हृदय जिसको तुम रोज अपने शब्द बाण से छलनी करते हो।
जाने अंजाने तुम्हे पता भी नहीं कि तुम वहां बैठे मेरे प्रभु को भी चोट देते हो हां वही प्रभु जिसको तुम हिमालय में ढूंढ़ते हो।वो तुम्हारे हृदय में भी रहना चाहते हैं बस वहां से झूठ और कपट का जाला साफ कर दो वो दौड़े चले जाएंगे तुम्हारे पास।
क्यों कि मेरे प्रभु बहुत सरल हैं और वे सरलता से ही प्राप्त होते हैं।
शिखा पांडेय
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