मैं कौन हूं? मैं क्या हूं?

खुद को परिभाषित करती एक कविता।

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Shalini Narayana
Shalini Narayana 04 Sep, 2020 | 1 min read

जो बीता है इतने सालों में मुझ पर उन सबका पुलिंदा बांधे चलती हूं। मत पूछना मुझसे ये पुलिंदा कितना भारी है। थक गई दुनिया के रिवाजों और बंदिशों से लड़ते लड़ते। पर मेरी जंग अभी भी जारी है।

आज उन सबको मैं इक जवाब देना चाहती हूं ,जो पूछते हैं मुझसे अक्सर के मैं कौन हूं?

शायद जवाब नहीं उन जख्मों का हिसाब देना चाहती हूं। मैं अपनी इक नयी तस्वीर बनाना चाहती हूं। जो कुचली गई, ढंकी गई , आंखों की शर्म कहकर छिपायी गई, सपनों को जिसके रौंदा गया मैं उन सपनों को नया आसमान देना चाहती हूं। 

मेरे सपने, मेरी उड़ान देखकर पूछते हैं लोग अक्सर के मैं कौन हूं? क्यों मेरा अस्तित्व अचानक है खिल गया? क्यों नहीं मैं मौन हूं? मैं मौन नहीं आवाज हूं जो ज़हन में सुनाई देती हूं। कौन हूं मैं ? उन्हें मैं आज ये बताना चाहती हूं।

मंजूर नहीं मुझे बंधकर रहना हवाओं सी बन गई हूं मैं मुझे बहने में मज़ा आता है। 

बन गई हूं मैं पहाड़ों सी मजबूत मुझे सर उठाकर जीने में मज़ा आता है ।

आंसुओ को अब नहीं बहाती आंखों में समेटकर उन्हें समंदर बनाया है , इस समंदर से सैलाब लाने में मज़ा आता है। मैं क्या हूं मैं कौन हूं ये दुनिया को बताना चाहती हूं।

मैं पुराने रस्मों की ढलती शाम नहीं मैं नये हौसलों का आगाज़ हूं। 

मैं प्रारंभ की परिभाषा हूं और मैं अंत का आधार बनना चाहती हूं। 

चहकती चिड़ियों में मैं इकलौता बाज़ बनना चाहती हूं।

मैं क्या हूं मैं कौन हूं मैं ये दुनिया को बताना चाहती हूं।

समझ सको तो समझो मुझको मैं बरसों से संजोया एक ख्वाब हूं। महसूस करो गर मुझको तो मैं सिर्फ एक खूबसूरत जज़्बात हूं।

पूछते हैं लोग अक्सर मैं कौन हूं ? मैं क्या हूं? उनको मैं बताना चाहती हूं।

मंजूर नहीं मुझे बादलों से घिरा रहना मैं चमकता सूरज हूं मुझे चमकने में मज़ा आता है।




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Shalini Narayana

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