बिना उससे पूछे
बिना कुछ सोचे
बांध दी जाती है
उसके सर पर
इज्जत की गठरी
दोनों परिवारों द्वारा
जिसे ताउम्र ढोती रहती है
अनगिनत समझौते
अनगिनत वेदना
अनगिनत यातना
चुप होकर सहती है
कितने ही ख्याबों को
दफन कर देती है
कितने ही सपनों का
गला घोट देती है
कितने ही अरमानों को
पैरों तले रौंद देती है
चेहरे पर मुस्कराहट और
नैनों में अश्कों की धार लिये
फिर भी तरसती रहती है
उन्हीं अपनों से
तारीफ के दो शब्द सुनने को
हाय रे नारी!
ये इज्जत की गठरी
बस तेरे हिस्से क्यों आई
समझकर इस बात को
अगर इंकार कर बैठी
उन बेतुके नियमों से
तकरार कर बैठी
तो बेशर्म और बेहया कहलाई
ये कैसी किस्मत पाई |
-सीमा शर्मा "सृजिता"
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