वर्षों से वो बैठी थी
टकटकी लगा दरवाजे पर
छोड़ गया प्रियतम उसका
शहर से उसके आने तक
अनगिनत उम्मीदों की किरणों से
था उसका जीवन रोशन
उम्मीद के दीये जCTलाती थी
लौट आयेगा एक दिन प्रियतम
कभी छत की मुँडेर पर जा बैठे
कभी पीपल के पेड़ के नीचे
कभी नहर किनारे बैठकर
अंखियन को अंसुअन से सींचे
कोई कहे इश्क़ में दीवानी
कोई कहे हो गई ये पागल
कोई कहे जोगनिया -मस्तानी
कोई कहे मौहब्बत में घायल
पल पल इन्तजार करे उसका
जो भूल गया शहर जाकर
इसी गांव की गलियों में
किया वादा ले जायेगा ब्याहकर
मां तो बचपन में चली गई
बाबा भी अब रहे नहीं
वो बैठ अकेली अपने घर
उम्मीद के दिये जलाती है
ले जायेगा बनाकर दुल्हन एक दिन
हर रोज ये स्वप्न सजाती है
कभी गाती है ,कभी मुस्काती है
बिन बात में हंसती जाती है
डगमगाये गर उम्मीद का दीया
अंसुअन से आंचल भिगाती है
लेकिन फिर खिल जाती है
उम्मीद की किरन उसके मन में
आयेगा एक दिन प्रियतम उसका
वापस उसके जीवन में
इसलिए फिर जा बैठती है
टकटकी लगाने दरवाजे पर
अपने प्रियतम के आने तक|
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Very Nice
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