बडा़ असीम है जीवन का ये दरिया
जितना गहरा जाती हूं खो सी जाती हूं
अनगिनत लहरें उठती हैं इसमें
कभी खुशियों के आसमान पर पहुंचा देती हैं
तो कभी गमों के सागर में डुबा देती हैं
कभी डूबते डूबते संभल जाती हूं
कभी संभलकर भी डूब जाती हूं
जाना चाहती हूं उस पार
जहां बैठकर ढूढं सकूं
सुकुन अपने मन का
जहां मिल जाये कोई ऐसा कोना
दुनिया का शोर छू भी ना पाये मुझे
मैं तन्हा बैठकर खुद से ही बतियालूं
इस दुनिया से दूर अपनी दुनिया बना लूं
लेकिन चाहतें सबकी पूरी कहां होती हैं
जीवन की अचानक उठने वाली लहर
फिर से बहा ले जाती हैं मेरा हर ख्याब
मैं कुछ देर मातम मना लेती हूं टूटते हर ख्याब का
फिर उलझती रहती हूं जीवन के दरिये में बहती
जो असीमित है .....
-सीमा शर्मा "सृजिता "
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