जॉन एलिया लिखते हैं -
"एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं"
मुसलसल किसी से प्यार करना बड़ा कठिन काम है जो अच्छे अच्छे रूमानी शायर भी नहीं कर पाते चाहे यहाँ जॉन एलिया हो या फिर अपनी ही किस्मत से बेमुतासिर परबीन शाकिर। सबके दिल से उतरना तो बेहद ही आसान फन है लेकिन सबके दिल में घर करना उतना ही मुश्किल। इस ज़माने की तंगदिली में अगर एक के दिल में भी ताउम्र उतर सकें तो वह भी मिशाल के तौर पर आँकी जानी चाहिए। इश्क़ करने की चाहत और इश्क़ निभाने की कूबत के बीच बहुत बड़ा फासला होता है जिसे पार करने के लिए सिर्फ दिल ही नहीं हिम्मत और हौसला भी चाहिए होता है। हर दौर में इश्क़ को इम्तहानों से गुज़ारना पड़ता है और इम्तहानों से गुज़र कर ही इश्क़ की हदें और सरहदें तय होती हैं।
ओशो कहते हैं-
"प्रेम का पहला सबक है, प्रेम को मांगो मत, सिर्फ दो। एक दाता बनो। लोग ठीक विपरीत कर रहे हैं, यहां तक कि जब वे देते हैं, तो इस ख्याल से देते हैं कि प्रेम को वापस आना चाहिए। यह एक सौदा है, वे बांटते नहीं हैं, वे खुलकर बांटते नहीं। वे एक शर्त के साथ बांटते हैं। वे अपनी आंखों के कोने से देखते रहते हैं, वापस आ रहा है या नहीं। बहुत गरीब लोग हैं! वे प्रेम के प्राकृतिक तरीके से नहीं जानते। तुम बस उंडेलो, वह आ जाएगा। और अगर वह नहीं आ रहा है, तो चिंता की बात नहीं है क्योंकि एक प्रेमी जानता है कि प्रेम करने का अर्थ खुश होना है। यदि वह आता है, बहुत अच्छा, तो फिर खुशी बढ़ती है। लेकिन फिर भी अगर यह कभी नहीं आता है तो प्रेम करने से ही तुम इतने खुश हो जाते हो, मस्ती से भर जाते हो, कि किसे फिक्र वह आता है या नहीं। प्रेम का अपना आतंरिक आनंद है। यह तब होता है, जब तुम प्रेम करते हो। परिणाम के लिए प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस प्रेम करना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम देखोगे की बहुत ज्यादा प्रेम वापस तुम्हारे पास आ रहा है। व्यक्ति प्रेम करता है और प्रेम करके ही जानता है कि प्रेम क्या है। जैसा कि तैराकी तैरने से ही आती है, प्रेम प्रेम के द्वारा ही सीखा जाता है।"
प्रेम एक खामोशी है, सुनती है-कहा करती है... सिर्फ एहसास है जिसे रूह से महसूस किया जाता है। मशहूर गीतकार गुलजार तो यहां तक कहते हैं कि 'खामोशी का हासिल भी एक लंबी सी खामोशी है...। कई बार सदियां बीत जाती हैं मगर खामोशी को लफ़्ज़ों का लिबास हासिल नहीं हो पाता। भले ही दिल पूछता रहे 'ये चुप सी क्यों लगी है अजी कुछ तो बोलिए, मगर प्रेम तो वहां से शुरू होता है, जहां शब्द चुक जाते हैं, परिभाषाएं खो जाती हैं और अर्थ खुद को ढूंढने की असंभव सी कोशिश करने लगते हैं।
समाजशास्त्री डॉ. रितु सारस्वत कहती हैं, 'साधारण लोगों को सुखांत ही प्रभावित और आकर्षित करता है। हम पर्दे पर भी तभी तालियां बजाते हैं, जब कोई अच्छा दृश्य देखते हैं। प्रेम का मामला थोडा अलग है। यहां मिलन-बिछोह जैसी स्थितियां एक हद के बाद ख़त्म हो जाती हैं। समाज प्रेम को स्वीकार कर ले और प्रेम को उसकी मंज़िल (शादी) मिल भी जाए तो वह इसी रूप में सदा बना रहेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। लैला-मजनूं शादी करते तो उनका प्रेम उतना ही दिलकश रह पाता, इसकी कोई गारंटी नहीं है। प्रेम में किसी तीसरे की जरूरत नहीं होती, मगर शादी एक सामाजिक संस्था है, जिसमें प्रेम के साथ अन्य जिम्मेदारियां भी जुडी हैं। प्रेम एक भावना है। भावना स्थायी नहीं होती, यह समय-सापेक्ष होती है, इसीलिए बदलती रहती है। कई बार प्रेमियों की शादी अलग-अलग हो जाती है। जीवनसाथी अच्छा और केयरिंग हो तो कई बार लोग पुराने प्रेम को भूल जाते हैं और नई ज़िन्दगी में एडजस्ट करने लगते हैं। प्रेम का पौधा तभी जीवित रह पाता है, जब उसे रोज खाद-पानी दिया जाए। नहीं सींचा जाएगा तो पौधा मुरझा जाएगा। स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम पनप तो सकता है, मगर वह लंबे समय तक तभी जीवित रह सकता है, जब उसमें अन्य भावनाएं जैसे समर्पण, त्याग, समझौता और जिम्मेदारियां भी शामिल हों।
जे कृष्णमूर्ति मानते हैं कि -
"प्रेम का मतलब है कुछ ऐसा, जिसका आप ध्यान रखें, ख्याल रखें। जैसे किसी वृक्ष की देखभाल, संरक्षण या पड़ोसी का ख्याल रखना या अपने ही बाल बच्चों की देखभाल और ख्याल रखना। यह ध्यान रखना कि बच्चे को उचित शिक्षा मिल रही है, यह नहीं कि स्कूल भेज दिया और भूल गए। उचित शिक्षा का मतलब यह भी नहीं कि उसे बस तकनीकी शिक्षा दी जाए। यह भी देखना कि बच्चे को सही शिक्षक मिले, सही भोजन-पानी मिले, बच्चा जीवन को समझे। प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते। हो सकता है आप सम्मानीय हो जाएं। आप चोरी नहीं करेंगे, पड़ोसी की पत्नी को नहींदेखेंगे, यह नहीं करेंगे वह नहीं करेंगे। लेकिन यह नैतिकता नहीं है। यह केवल सम्मानीयता के अनुरूप होना है। जहां पर प्रेम होता है वहीं पर नैतिकता होती है।"
प्रेम धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ में एकनिष्ठ प्रेम से आगे बढ़कर यह कहता है कि सच्चा प्रेम केवल एक बार नहीं होता बल्कि वह एक ऐसी कामना है जिसकी चाह में प्रेम बार बार हो सकता है, वह पड़ाव नहीं अनुभव की यात्रा होती है। कमलेश्वर के अपेक्षाकृत कम चर्चित उपन्यास ‘तीसरा आदमी’ में एक छोटे से घर में एक विवाहित जोड़ा रहता है, पत्नी को बग़ल में रहने वाले एक व्यक्ति से प्रेम हो जाता है। यह एक नई तरह का प्रेम है जो परिस्थितिवश होता है। विवाह ज़िम्मेदारी है और प्रेम मुक्ति। ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति इसको इसी रूप में देखे ही। अज्ञेय के उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में प्रेम एक यात्रा की तरह है, जिसमें कुछ प्रेम भरे प्रसंग हैं जो जीवन में यादगार रह जाते हैं। लेकिन जीवन उनके कारण ठहर नहीं जाता। ‘देवदास’ का जो प्रेम दर्शन है उसमें प्रिय के बिछोह के बाद जीवन ठहर जाता है लेकिन निर्मल वर्मा की कहानी ‘एक दिन का मेहमान’ में जीवन आगे बढ़ जाता है लेकिन ठहरा हुआ प्रेम एक दिन उभर जाता है।
लेखिकाओं की प्रेम कहानियों में परिवार, कैरियर, सामाजिकता के कारण दमित रह गया प्रेम उभर कर आता है। मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ में एक ऐसी स्त्री है अलग अलग समय पर रहे अपने दो प्रेमियों के द्वंद्व में उलझी हुई है। मृदुला गर्ग के बेहद चर्चित उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ की नायिका को अपने पति से सब कुछ मिलता है लेकिन प्यार उसको रिचर्ड से मिलता है। एक बार जब रिचर्ड उससे पूछता है कि अगर तुम मेरी पत्नी होती तो नायिका मनु जवाब देती है कि फिर मैं महेश से प्यार करती। महेश उसके पति का नाम होता है। इस तरह यह उपन्यास विवाह की संस्था पर ही सवाल उठाती है। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ की नायिका बेबी हिंदी की वह पहली नायिका है जो प्रेम में साहस दिखाती है और विद्रोह की हद तक पहुँच जाती है लेकिन नायक डीडी उसको चादर ओढ़ाकर चला जाता है। पुरुष नहीं स्त्री प्रधान है।
पा लेना तो हर कोई चाहता है। कोई भी पा सकता है, मगर प्रेम की खातिर कोई मीरा ही होगी, जो जहर का प्याला भी हंस कर पी ले।
सलिल सरोज
नई दिल्ली
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