कमजोर तो नहीं हूँ, बस अब और लड़ना नहीं चाहता,
थका भी नहीं हूँ अब तक मगर अब चलना नहीं चाहता,
अपने सभी ख़्वाबों से, ख़ुद ही दूरियाँ बढ़ाने में लगा हूँ मैं,
क़रीब है हर मंज़िल मगर अब मैं कहीं पहुँचना नहीं चाहता,
आँधियों से भी बिना क़दम लड़खड़ाए लड़ पड़ता था मैं कभी,
सबल तो मैं उतना आज भी हूँ मगर अब सँभलना नहीं चाहता,
चुभने लगी हैं मेरे अपनों को शायद आजकल कामयाबियाँ मेरी,
किसी का दिल जलाकर, मैं अपना घर रौशन करना नहीं चाहता,
बार-बार ख़ुद को सही साबित करके थक चूका है “साकेत" भी,
गलत तो आज भी नहीं मगर अब मैं कोई बहस करना नहीं चाहता।
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Beautiful post
Beautiful poem
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