मिलकर यार से बेवजह ही बिछड़ना कौन चाहता था,
कर के तकिए को हमराज़, बिफरना कौन चाहता था,
आगोश में जिसके सुकून था, सर्दी में गुनगुने धूप सा,
कह अलविदा उसे तन्हाई में सिहरना कौन चाहता था,
जिन आँखों में देखा करता था मैं अक़्स सिर्फ़ अपना,
उन्हीं नज़रों से बच-बचकर निकलना कौन चाहता था,
मिली ख़बर कि है एक रक़ीब भी, होड़-ए-आशिक़ी में,
होती वो महबूबा बस मेरी तो बिखरना कौन चाहता था,
मारी गई थी मति, जो मोहब्बत के गलियारे से गुजरा मैं,
वरना इश्क़-विश्क़ में “साकेत", पड़ना कौन चाहता था।
Comments
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बहुत ही सुंदर लिखा है, हर एक अल्फ़ाज़ आपकी कहानी को सामने चित्रित कर जीवंत महसूस कराने की ताकत रखता है
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