हिंदुस्तान तो हमारा है मगर क्या हम हिंदुस्तानी हैं,
गर्व करें वो शहीद हमपर, क्या इतने स्वाभिमानी हैं,
हैं अगर तो अशिक्षा के आगे क्यों हम सर झुकाते हैं,
क्यों उन्हें ही सर पर बिठाते हैं जो पूर्णतः अज्ञानी हैं,
न्याय व्यवस्था तो बस राजनीति की गुलाम बन चली है,
अंधा है कानून और मूक-बधीर सारी आवाम बन चली है,
धर्म-निरपेक्ष भारत में धर्म के नामपर मतदान किए जाते हैं,
भारतीयता तो बस दंगों और फसादों का अंजाम बन चली है,
है लहू नहीं देशवासियों में, अशुद्ध पानी अब रग-रग में बहता है,
न्याय के लिए आवाज़ नहीं उठते, जुर्म तो हर मोड़ पर पलता है,
जय हिंद, इंकलाब के नारों पर अब जाति-धर्म के दंगे भी भारी हैं,
ऐसे हालात देखकर देश की, लौहपुरुष का अब न होना खलता है,
पौराणिक सभ्यता भूलकर अब ये देश बहुत तेज़ विकास कर रहा है,
अपना मूल अस्तित्व खोकर, न जाने ये अब किस राह पर बढ़ रहा है,
शायद पश्चिमी सोच और विचारों के पराधीन होने की कगार पर हैं हम,
कामयाबी की सीढ़ियाँ ये देश अपनी संस्कृति को भी भुलाकर चढ़ रहा है,
सोचना अब ये है कि क्या इसी दिन के लिए पूर्वजों ने स्वतंत्रता दिलाई थी,
क्या ऐसे ही हालातों के लिए उन्होंने गर्व से अपने सरों की बली चढ़ाई थी,
क्या ऐसी स्वाधीनता और विकास उनके बलिदानों का एक अपमान नहीं है,
क्या धर्म के नाम पर देश बाँटने के लिए ही उन्होंने जान की बाज़ी लगाई थी,
अरे! विरासत में मिली है हमें ये स्वतंत्रता, हम किस बात के अब अभिमानी हैं,
लूट रहे हैं भारत को भारतवासी बनकर, हम लालच और स्वार्थ की निशानी हैं,
वीर थे वो जो देश के लिए शहीद हुए और वीर हैं वो जो शहीदी से नहीं डरते हैं,
हम इंकलाब, जय हिंद का असल अर्थ भूल जाने वाले, क्या हम सच्चे हिंदुस्तानी हैं।
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