अहंकार की ज्वाला में जल गया अहंकारी का अहम् प्यारा,
जीत हुई परमार्थी की, भक्ति की शक्ति का फैला उजियारा,
भक्तवत्सल श्रीहरि की लीला भी वास्तव ही में अपरंपार है,
आंच भी न आई प्रह्लाद को जल गया होलिका का तन सारा,
कहते हैं न कपट करने वालों के साथ नियति खेल खेलती है,
भर कर मन में ईर्ष्या, लोभ आदि विनाश की ओर धकेलती है,
न समझ पाई होलिका इस बात को, अंततः अंत को प्राप्त हुई,
वरदान उसका उल्टा पड़ गया, जीवनलीला उसकी समाप्त हुई,
सोचकर देखें यदि तो कब किसी बुरा चाहके हमने कुछ पाया है,
हर पल खोखले हुए हैं हम भीतर से, स्वयं को ही बस गँवाया है,
बताओ तो! अधर्म की ये वृत्ति धर्म से क्या कभी भी जीत पाई है,
दुराचारियों ने हमेशा ही धूल ही फांकी, केवल मुँह की ही खाई है,
हर वर्ष का होलिका दहन का ये त्योहार हमें यही तो समझाता है,
अधर्म, कपट, ईर्ष्या आदि से, हमें दूरी बनाना भी तो सिखाता है,
सिखाता है हमें, किसीका बुरा चाहने से, स्वयं का ही नुकसान है,
निस्वार्थ और कर्तव्यनिष्ठों को मिलता श्रीहरि से सीधा वरदान है,
तो चलो रंगों के त्योहार से पूर्व ही अंतर्मन को पवित्र पावन कर लें,
जला दें होलिका दहन में मन का मैल सारा, जीवन सुहावन कर लें,
फाल्गुन की इस रात में हर्ष और उल्लास से खुशियाँ हर ओर फैलाएँ,
याद करें प्रह्लाद के आदर्श को और श्रीहरिके मधुर भजन गाएँ, सुनाएँ।
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