न इकरार मैं कर पाता हूँ, न वो इशारे समझ पाती है,
न मुझे आता है प्यार जताना, न वो आँखें पढ़ पाती है,
न जज़्बात मेरे अल्फाज़ों में ढलकर पहुँचते हैं उस तक,
न उसके सामने मेरी हकलाहट के मायने वो गढ़ पाती है,
न साथ चलते हुए भी ये क़दम, उसके करीब जा पाते हैं,
न हया के दामन से लिपटी हुई वो, मेरी ओर बढ़ पाती है,
न ज़रा सा भी होश में, मैं रह पाता हूँ उसकी मौजूदगी में,
न उसकी खुशबू में मदहोश मेरे मन को वो परख पाती है,
कैसी अजीब फ़ितरत है, वस्ल-ए-आशिक़ी की “साकेत",
कि न तू रहता है उस बिन, न वो ही तेरे बिन रह पाती है।
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Superb
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