शायद वाजिब है डर मेरा

शायद वाजिब है डर मेरा

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Saket Ranjan Shukla
Saket Ranjan Shukla 17 Mar, 2022 | 1 min read

है अब डर ये कि डर ख़त्म न हो जाए मुझमें,

बाक़ी की राह, सफ़र ख़त्म न हो जाए मुझमें,


बुलंदियों को छूने की आदत लगती जा रही है,

शेष रही ज़िद-ए-जफ़र ख़त्म न हो जाए मुझमें,


मैं, मेरे अंदर बचूँगा क्या? अबकी जीत के बाद,

मुश्किलों सह् मेरा डगर ख़त्म न हो जाए मुझमें,


ऐसे आसान ज़िंदगी की लत लगी तो गलत होगा,

ज़ुनून की वो बेबाक लहर ख़त्म न हो जाए मुझमें,


मेरी ख़ामियाँ, मुझे मुझसे जोड़े रखती हैं “साकेत",

डर है, मेरे क़िरदार का असर ख़त्म न हो जाए मुझमें।


BY:— © Saket Ranjan Shukla

IG:— @my_pen_my_strength

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Saket Ranjan Shukla

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