है अब डर ये कि डर ख़त्म न हो जाए मुझमें,
बाक़ी की राह, सफ़र ख़त्म न हो जाए मुझमें,
बुलंदियों को छूने की आदत लगती जा रही है,
शेष रही ज़िद-ए-जफ़र ख़त्म न हो जाए मुझमें,
मैं, मेरे अंदर बचूँगा क्या? अबकी जीत के बाद,
मुश्किलों सह् मेरा डगर ख़त्म न हो जाए मुझमें,
ऐसे आसान ज़िंदगी की लत लगी तो गलत होगा,
ज़ुनून की वो बेबाक लहर ख़त्म न हो जाए मुझमें,
मेरी ख़ामियाँ, मुझे मुझसे जोड़े रखती हैं “साकेत",
डर है, मेरे क़िरदार का असर ख़त्म न हो जाए मुझमें।
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