हर बार ख़ुद को कम क्यों आँकने लगते हैं हम,
क्यों मुश्किल आते ही पीछे झाँकने लगते हैं हम,
यूँ तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं हार कर जीतने की,
फ़िर क्यों शुरुआती ठोकरों से काँपने लगते हैं हम,
अकेले चले थे सफ़र में, हौसले अपने बुलंद करके,
फ़िर क्या सोच तक़दीर से मदद माँगने लगते हैं हम,
क़ामयाबी के लिए, हर तूफ़ान से टकराने को तैयार हैं,
नाक़ामयाबी की ज़िम्मेदारी से क्यों भागने लगते हैं हम,
क्या हुआ है हमें “साकेत", इतने बुज़दिल तो नहीं हैं हम,
आख़िर क्यों फ़िर ज़ंग से पहले ही हार मानने लगते हैं हम?
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
कई बार नकारात्मकता मन मस्तिष्क को घेर लेती है।
खूबसूरत रचना
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