मुश्किल राहें नामुमकिन सा सफ़र लगता है,
काँटो और पत्थरों से भरा ये डगर लगता है,
नाउम्मीदी की काली धुंध छाई है हर ओर ही,
अनजान से अंधेरों में डूबा ये सहर लगता है,
वक़्त भी न जाने क्यों थम गया है इस लम्हें में,
ऐसे में नामुमकिन काटना हरेक पहर लगता है,
ठोकरों की तो आदत हो चली है पाँवों को अब,
क्यों ये वक़्त का ढाया हुआ कोई क़हर लगता है,
बड़ी गहरी प्यास थी “साकेत" ज़ाम-ए-ज़िंदगी की,
मगर अब इससे कहीं मीठा तो मुझे ज़हर लगता है।
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