मैं लड़ा भी जब-तक लड़ सकता था,
कोशिशें कीं जब-तक कर सकता था,
ठोकर खाई, ज़ख्म सहे पर थका नहीं,
राह में डटा रहा जब-तक डट सकता था,
हालात बेहतर होने की आस दे बिगड़ गए,
ख़ुद ही संभला जब-तक संभल सकता था,
साथ जो भी था सबको ख़ुद ही दूर किया है,
रहा भी क़रीब सबके जब-तक रह सकता था,
लेने वाले सब कुछ ले ही लेने पर तुले हैं शायद,
बंटता रहा हरेक कतरा, जब-तक बंट सकता था,
अकेलेपन को ही अपना मान, सब सौंपा उसे मैंने,
खोता रहा ख़ुदको, तन्हाई जब-तक सह सकता था,
किसके सहारे मारूँ हाथ पैर और किसकी तकूँ राह,
टटोला हर तिनके को, बदन जब-तक तर सकता था,
आँखें यूँ डबडबाईं कि नज़रिया तक धुंधला गया मेरा,
लड़खड़ाते कदमों से भी बढ़ा जब-तक बढ़ सकता था,
तकलीफ़ के मायने, हरेक मोड़ पर बदलते रहे मेरे लिए,
मैं भी बदलता ही रहा ख़ुदको जब-तक बदल सकता था,
दिल को कोई गुरेज़ नहीं है “साकेत" यूँ हार मानने से अब,
क्योंकि ये जानता है कि मैं लड़ा, जब-तक लड़ सकता था।
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