न तो गिरता हूँ, न ही सँभलकर चलने पाता हूँ,
न तो बदलता हूँ, न ही हालात बदलने पाता हूँ,
उकता सा गया हूँ, एक ही हार से हार हार कर,
न तो थकता हूँ, न ही दोबारा से लड़ने पाता हूँ,
ये किस तरह की भूल-भुलैया हो चली है ज़िंदगी,
न तो रास्तों में उलझता हूँ, न ही समझने पाता हूँ,
एक ही मोड़ से गुज़रा हूँ, जाने कितनी ही दफ़ा मैं,
न तो चोट भूलता हूँ, न ही सीख याद रखने पाता हूँ,
जलाता रहा ख़ुदको “साकेत" अंधेरी रातों के डर से,
न तो ख़ुद को दिखता हूँ, न ही मशाल बनने पाता हूँ।
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