कुछ किस्से हैं जिनका ज़िक्र ख़ुद से भी नहीं करता हूँ मैं,
हैं कुछ राज़ जिन्हें अपने दिल में दफन किए फिरता हूँ मैं,
कभी ख़ामोशी, कभी उलझी पहेलियों का सहारा लिया है,
सीधी जुबान गलती ना कर बैठे ऐसे ख़्यालों से डरता हूँ मैं,
मुस्कुराहट के पीछे अपना दर्द छुपाना मुझे आया नहीं कभी,
शायद इसीलिए लोगों से खुलकर ज़रा कम ही मिलता हूँ मैं,
नज़रें चुराता हूँ हर किसी से कि बहुत बातूनी हैं निगाहें मेरी,
इसीलिए महफ़िलों में सर झुकाकर ही कुछ अर्ज़ करता हूँ मैं,
कहते हैं लोग कि बातें उलझाना तुम्हें ख़ूब आता है “साकेत",
कैसे कहूँ, ऐसे ही तो हर राज़ को महज़ राज़ बनाए रखता हूँ मैं।
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बहुत खूब
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