उलझनों का एक सिरा थाम कर
निकल पड़ी थी जिंदगी के
उलझनों को सुलझाने।
उलझने कुछ अपनी थी,
कुछ बेगानी थी।
कुछ समाज को देखकर आई थी,
कुछ सवाल बनकर मन में उभरी थी।
जीवन समर में जितनी पीड़ाएँ थी,
उन पीड़ाओं से उभरे थे कष्ट,
उन कष्टों से टूटते ख़्वाब
उन ख़्वाबों के अधूरेपन की कसक।
कुछ कहानी अपनी थी,
कुछ थी बेगानी।
कुछ मानव मन के आस पास को
देखकर उभरी प्रतिक्रिया थी।
हर उन भावों और विचारों को जब शब्दों में ढाला,
लोगों को लगा पीड़ाएँ आई मेरे हिस्से।
फिर उस पर आई प्रतिक्रिया,
कुछ सहानुभूति के बोल।
कुछ झूठे,कुछ सच्चे अफ़सोस।
मगर ये तो विचार थे जो मन में उपजे थे
मंथन के बाद।
जीवन उपवन में प्रेम मिला,
स्नेह मिला,
मिला कुछ अपनेपन का विश्वास।
कभी गिरने पर किसी ने संभाला,
किसी ने पोंछे आँसू।
किसी ने साथ मिलकर हँसी की
फुलझड़ियाँ बिखेरी।
कोई बना मुस्कुराहट की वजह।
कभी दूसरों को प्रेम से खिलखिलाते देख,
मन हुआ आह्लादित ।
हुआ स्वयं के मन में प्रेम का एहसास।
प्रेम के विभिन्न रूपों की परिकल्पना,
उसके लिए मन में कोमल कल्पित कल्पना।
उस पर भी लगे प्रश्नचिन्ह,
उस पर भी उठे कई सवाल।
पर इन प्रश्नों का उत्तर किसको दूँ स्पष्टीकरण
क्या दूँ जबाब।
यह तो सहज मानवीय गुण
और मानव मन की चेतना।
जो उभरते हैं मन में कल्पना के बाद।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.