सुबोध अपने मृत माता पिता की आत्मा की शांति के लिए तर्पण करने के लिए सपरिवार गया जा रहा था।
कहते हैं कि गया जाकर तर्पण करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।
उसकी पत्नी सरिता ने कहा कि चलिये आपके साथ ही मैं भी अपने माता पिता का तर्पण कर दूंगी।
मेरा भाई नही है तो क्या हो गया ,मैं भी तो उनकी ही औलाद हूँ।
सुबोध ने कहा कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है आज तक सुना है क्या कही की बेटियाँ तर्पण करती हैं।
सरिता ने कहा कि अगर नही सुना है तो अब सुन लेंगे,इसमें कौन सी बड़ी बात है।
तब सुबोध चिल्लाने लगा कि कहाँ से खर्च आएंगे वगैरह वगैरह ।
सरिता की आँखों में आँसू आ गए वह सोचने लगी मैंने तो कभी भेद नही किया फिर ये क्यों?
शायद बचपन से ही उन्हें यह परवरिश मिली है।
सरिता की रोती आत्मा को देखकर बार बार यह सवाल उठ रहे थे क्या सुबोध के माता पिता इस तर्पण से खुश हुए होंगे।
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