,कुछ स्याह सच जो आस पास देखने को मिलता है
चेहरे की चोट को अपनी लटों से छुपाते,
होठों पर जबरदस्ती मुस्कान लाते,
रखती है व्रत वो पति की चिरायु के लिये,
जो हर छोटी बात पर उठाता है लातें।
परिचारिका बन करती है वो तीमारदारी,
आया बन उठाती है सबके के नखरे भारी,
नर्स बनकर सेवा करती, करती दूर बिमारी
फिर भी होती जिंदा उसको जलाने की तैयारी।
सुबह उठकर वो करती घर के सारे काम.
प्रत्येक सदस्य की वो पूरी करती हर माँग ,
फिर कामकाजी बन संग जमाने के चलती,
लौटते ही घर कठोर शब्द और ताने सुनती।
सब करने के बाद भी दिन गुजरता बहुत भारी ,
दुनिया को दिखाने को फिर भी करती शृंगार है नारी,
हँसती मुस्कुराती मूर्ति त्याग की वो हर बलिदान करती,
बरसाता है जो गालियाँ, उसकी खुशियों का आहवान करती।
विडबंना इस समाज की है ये कैसी
जिम्मेदारियों के लिये स्त्री ही क्यों त्याग करती।
पशु प्रमाण दे उसी के भाँति ताङी जाती है
फिर भी पतिव्रता रह जीवन में प्रयाग भरती
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