प्रेम सदा से ही रही अबूझ पहेली,
नही बनी थी वह कभी मेरी सहेली,
अपनी धुन में मैं बढ़ी ही जा रही थी,
न जाने कब कैसे मेरी देहरी पर आई,
और मैं नही रह गयी अकेली।
स्वयं को स्वयं पर विश्वास नहीं था,
मैं हो सकती विशेष ये आस नही था,
कभी किसी दिल को मैं भा जाऊँ,
मन में ऐसा कुछ एहसास नही था,
पर जुड़ी तुमसे और जुड़ती ही गयी,
ये एहसास लगने लगा खास था।
जिंदगी खुशनुमा देने लगी दिखाई,
जैसे खुशियों की अमूल्य निधि पाई,
दर्द से उबरने की हिम्मत मिल गयी,
प्रेम के दो बोल हुई असरकारी दवाई,
इस तरह इंद्रधनुषी रंग जीवन में बिखरा,
हर तरफ रौनकें बहार लगे छाई।
तुम्हारी बातें मेरे दिल को सुकून दे जाती,
कभी वह मेरे दर्द में मरहम बन कर आती,
कभी तुम्हारी बातों की नरमी मेरे जख्मों पर,
रूह की फाहों सी आ मेरा दर्द मिटाती,
तुम्हारी बातों से ही मुकम्मल हो गयी मैं,
और अपूर्णता का एहसास भूलाती।
प्रेम में सीखा मैंने त्याग विश्वास और समर्पण,
खुशी में खुश हुई और सुकून का पदार्पण,
तेरे बातों से ही मैं स्वयं से इश्क करने लगी,
और भूल गयी मैं देखना दर्पण,
इस तरह प्रेम ने बदला मेरा जीवन अंदाज,
प्रभु को शुक्रिया और क्या करूँ मैं अर्पण।
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