थी कितनी सुन्दर वो बचपन वाली दीवाली,
नही रहती थी कभी किसी की झोली खाली,
मिलजुलकर सब करते थे तैयारी महीनों से,
आपस में बाँट रखा था अमिय प्रेम की प्याली।
वो कितने सुंदर मिलजुल कर थे घरौंदे बनाते,
कागज की लड़ियों और फूलों से थे सजाते,
रंग लगाते थे उसमें सब मिलजुलकर खुद से,
देख देख खुश होकर मन को थे हम बहलाते।
गोबर मिट्टी से घर बाहर सब ढंग से लीपते थे,
कहाँ से मिट्टी लाना है पहले से ही टिपते थे,
महीनों पहले से ही रंगरोगन शुरू हो जाता था,
वक़्त मानो पंख लगाकर झट बीतते थे।
कुम्हार की चाक महीनों पहले से चलती थी,
प्यारी प्यारी छोटी छोटी दीप वहाँ बनती थी,
नही थी बिजली की लड़ियों का कोई फैशन,
जगमग दीपक से दीवाली अच्छी मनती थी।
आस पड़ोस के घरों से पकवान की खुशबू आती,
पड़ोस वाली चाची के घर खूब मिठाई खाती,
आपस में मिलजुलकर थे सब त्योहार मनाते,
नही दिखावे में दुनिया इतना मगन खोती थी।
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