सुनो न प्रकृति कुछ तो कह रही है,
अपने ही रौ में बढ़ते हम इंसानों को
यह बता रही है।
सुनो न प्रकृति कुछ तो सीखा रही है।
कल कल बहती नदियाँ क़रतीं हैं हमसे बातें,
अनवरत अनथक बढ़ते चलो
चाहे हो राहों में लाखों कंटकें,
राहें बनाओ अपनी तुम हर बाधाओं के बीच में,
देखो कैसे फिर हो जायेंगी आसान राहें।
सुनो न,प्रकृति हमको बता रही है,
लाखों तूफानों में भी स्वयं को थामे रहती,
वह पेड़ जो मजबूत हो सदा ही जड़ से,
ठीक वैसे ही तुम स्वयं को उथला न बनाओ,
जड़ से मजबूत होकर स्वयं को दिखाओ।
जमीन से पकड़ को इतनी मजबूत रखो,
उड़ो चाहे नभ में कदम न डगमगाओ।
सुनो न पतझड़ में गिरते पत्ते हमको
इस हक़ीक़त से रूबरू करवा रही है।
चाहे कितनी भी उन्नति कर लें
पर वक़्त की मार सबको आजमाती है।
जो हरे भरे पौधे हैं पत्ते और फूलों से लदे हैं,
एक दिन ठूँठ बन जाते हैं।
सुनो न हर दिन के बाद रात का आना,
हमको यह बतलाये
हर अँधियारा अपने साथ उम्मीद का सवेरा लाये
फिर क्यों दुखों से रे मन इतना तू घबड़ाये।
प्रकृति हमें सीखा रही है,
कुदरत के करिश्मे से रूबरू करवा रही है।
प्रकृति सदा ही बतलाती है,
फलों से लदी डालियाँ अक्सर ही झुक जाती है।
तुम भी विनम्र सदा ही रहना,
चाहे कितनी भी ऊँचाई पर पहुँचना।
कुदरत के अद्भुत नजारे कुदरत का उत्तम उपहार।
सदा ही शुक्रिया करना,सदा ही सीख लेना।
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