जीवन के उथल पुथल बीच,
कौंधा एक प्रश्न मन में,
सांता अगर बन जाऊँ तो क्या मैं
इस जग को देना चाहूँ।
नफ़रत की दीवार हटा ,
प्रेम पुष्प जो खिल जाए,
कुछ ऐसे जतन कर ,
मैं हर दिल प्रेम पौध लगाऊँ।
स्नेह,प्रेम ,सम्मान का जो मिट
रहा है भाव हिय से।
वैसे बुझते हिय में सहयोग
साहचर्य का दीप जलाऊँ।
अगर कही मैं सांता बन जाऊँ,
अंधाधुंध विकास की होड़ में
भाग रहे मानव मन को।
रिश्तों की अहमियत समझाकर
उनका कद्र करना मैं सिखलाऊँ।
अधिकार कर्तव्य बीच तालमेल कर
जिये सभी ऐसा जतन करूँ।
एक दूजे के खुशी के खातिर
मैं त्याग समर्पण का महत्व बताऊँ।
संस्कृति मर्यादा का महत्व भूल,
आधुनिकता की अंधी दौड़ में
भागता जा रहा है मानव।
उनके बुझे दिमागों में संस्कारों के
महत्व का परचम मैं फहराउं।
अगर सांता बन जाऊँ मैं कभी,
कर्म करना सिखलाकर
दरिद्रता हर जीवन से मैं मिटाऊँ।
रोग बीमारी की पीड़ा दूर हो,
कुछ ऐसी औषधि का निर्माण करवाऊँ।
उत्साह ,हौसला,हिम्मत का भाव
हर मन में जग जाए।
मुस्कान हर होठों पर आंतरिक खुशी
से बरबस आ जाये।
प्रकृति की हरियाली फैले चहुँ ओर
प्रकृति की सुंदरता में हर मन रम जाये।
सांता बनना हो अगर कभी,
तो मैं इसे करना चाहुँ।
या फिर अपने ईश से प्रार्थना करूँ,
यह अभिलाषा मेरे मन की
यथार्थ रूप में ढल जाए।
Comments
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lovely
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