जिंदगी की हक़ीक़त को समझना हुआ मुश्किल,
देख के दुनिया का चयन घायल हुआ ये दिल,
रोड़े मिले बहुत सारे कठिन लगने लगा मंजिल,
कौन अपना कौन पराया समझने में देर बहुत कर दी।
जुबां चाशनी और साज़िशें चल रहा था मन में,
इसी साज़िशों में उलझता रहा सदा ये मन,
फ़र्क हक़ीक़त और झूठ में नही कर पाया जल्दी ही,
झूठ से पर्दा हटाकर सच समझने में देर बहुत कर दी।
अभी बाकी था समझना कि क्या है असली हक़ीक़त,
क्यों बदलती है फ़ितरत क्यों बदल जाती है इंसान की नीयत,
क्यों प्रेम को कमजोरी समझकर उलझाया जाता है अक़्सर,
प्रेम नही है ये छल है समझने में देर बहुत कर दी।
देर कर दी अपनी बातों को कड़ाई से समझाने में हमने,
अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए कदम उठाने में हमने,
रिश्तों को समर्पण विश्वास और प्रेम से चलाया जाता है,
देर कर दी इस हक़ीक़त से रूबरू करवाने में हमने।
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