कभी कभी लगता है
मैं हर बार ठगी जाती हूँ छली जाती हूँ
जो भी मेरे साथ व्यवहार घटित होता
वह सब मात्र भ्रम है
या सिर्फ मेरी खुशफहमी।
कभी कभी लगता है
जिसे मैं सबसे ज्यादा समझने का दावा करती,
वही पर मैं शून्य हूँ,
मेरे आस पास आवरण है गलतफहमी का।
कभी कभी लगता है
जितना मैं जीने की कोशिश करती,
उतना ही मृत्यु के लिए खुद को मजबूर पाती,
मेरे पास बस विवशता है खुश दिखने का।
कभी कभी क्या ,हर बार मुझे यही लगता
मैं मूर्ख हूँ नही समझती दुनियावी चाल को,
हर बार सौ प्रतिशत देने के बाद भी
पाती हूँ उसका एक तिहाई या वो भी नही।
और फिर मुझे लगने लगता,
इन दुनियावी मायाजाल से किनारा कर लूँ,
छोड़ दूँ सबको अपने हाल,
और अकेले ही गुजार कर लूँ।
और ऐसे मुझे लगने लगता कि
मैं हूँ अनफिट इस दोहरे चरित्र के समाज में
मुझे बहिष्कृत किया जाना चाहिए
इस समाज
तभी कुछ ऐसा घटित होता कि मुझे यह यकीन हो जाता कि
कोई तो है जो अच्छे को पहचानता
मेरी बुराई को है जनता
और फिर भी मुझे मानता।
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