रात के सन्नाटे में पढ़ी जब मौन की किताब,
जब कभी किया जिंदगी का हिसाब,
क्या खोया,क्या पाया
कहाँ भटक गयी राह मैं
कितनी पाली मैंने हसरतें बेहिसाब
कब कहाँ कमजोर पड़ी मैं
जहाँ बचाये रखना था अपने अंदर की ताब।
थी मैं थोड़ी हिसाब में कच्ची,
मगर इरादों में रही बिल्कुल पक्की,
किया याद बिना जोड़ घटाव के
और पाया नही बहुत जगह रह पाई सच्ची।
जहाँ छोड़ना था उसे पकड़े रखा,
जहाँ संभालना था उसे छोड़ दिया।
मगर जो भी किया जितना भी किया,
नेक इरादे और सच्चे दिल से किया।
मगर रात के सन्नाटे में सोच यह गहराया है,
जिंदगी के तजुर्बे ने इतना ही सिखाया है,
छोड़ दो समय की धार पर
हर उन उलझे सवालों को,
जिनका जवाब तुम्हें नही मिल पाया है।
कोशिश अब बस इतनी करनी है,
छोड़कर वक़्त की बहाव पर सब कुछ
जिंदगी को जिंदगी से मुहब्बत करनी है।
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