प्रीतम और दामिनी कोर्ट से अलग हो चुके थे ,उन्होंने कोर्ट मैरिज की थी ,मगर शादी के बाद दामिनी की स्वतंत्रता प्रीतम को खटकने लगी, उस पर बात बाद में पाबंदी लगाना जैसे उसका पुरुषत्व हो गया।
मानसिक उत्पीड़न, स्वाभिमान और अहं की तकरार जब हद पार कर गई तो दामिनी ने अलग होने का फैसला कर लिया। काश! ऐसा होता कि वह दामिनी को रोक पाता मगर उसके हाथ से अब सब कुछ रेत की तरह फिसल चुका था गाड़ी दरवाज़े पर खड़ी थी..
दामिनी अपना सामान रखवा रही थी,प्रीतम चुपचाप से स्तब्ध होकर खड़ा था।दामिनी को तीव्रता से एहसास हुआ कि इससे पहले कही जाना होता तो प्रीतम दामिनी को सामान की तरफ हाथ लगाने भी न देता था।अचानक से पिछली सारी बातें दिमाग में चलचित्र की तरह घूमने लगी।प्रीतम और उसकी छोटी छोटी बहस,तकरार फिर लड़ाईयां ।दोष अगर प्रीतम का था तो दामिनी का भी कम नही था।बराबरी और समानता के नाम पर दामिनी ने भी प्रीतम को बहुत परेशान किया था और छोटी बातों को बड़ा बनाने में कोई कसर नही छोड़ी थी।
मगर आज उसे यह सब क्यों याद आ रहा था।
आज दामिनी की शिद्दत से ख़्वाहिश थी कि प्रीतम एक बार रोक लें और प्रीतम की इच्छा थी कि दामिनी एक बार रुक जाये।पर दोनों का अहम आड़े आ रहा था।
तब प्रीतम ने कहा दामिनी रुक जाओ,हम दोनों के लिए न सही हमारी बिटिया सुविज्ञा के लिए।
थोड़ा थोड़ा दोनो अपने को बदलने की कोशिश करेंगे।
प्रीतम के इतना कहने भर की देर थी दामिनी झट से आकर उसके गले लग गयी।
एक बसी बसाई गृहस्थी बिखरने से बच गयी।
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