घर के खर्च के लिए मिले पैसों से
जोड़ गाँठकर माँ जब कुछ पैसे बचाती
फिर बड़े जतन से उसे संभाल कर
बड़े वाले बक्से में
लाल रुमाल में बाँध कर छुपाती
और गाहे बगाहे अचानक जरूरत पड़ने पर
हाथ पर पापा के गर्व से रखती
और कहती फिर लौटा देना मुझे।
तब वह था उनका स्त्री धन।
नानी के घर छुट्टियों में जब हम जाते,
नाचते गाते और ख़ुशियाँ मनाते।
नानी अपना जब प्यार लुटाती,
चंद रुपये और कुछ सामान वार देती।
माँ अचानक से अमीर बन जाती,
नानी के प्यार संग उपहार जब पाती।
वही अमीरी करती उनकी खुशियाँ पूरी
और नानी का उपहार हो जाता उनका स्त्री धन।
समय बदला ,परिस्थिति बदली,
सोच बदला और नियत बदली।
कथित आधुनिकता का दम्भ भरने वाले,
नारीवाद का झंडा बुलंद करते चलते हैं।
स्वतंत्र मानस ,लालची फ़ितरत, ससुराली शिकायत
मगर उनके द्वारा दिया गया सामान
हो गया है स्त्री धन।
वाह रे सोच ,वाह रे नियत,
कैसा कानून कैसी बन गयी फ़ितरत।
नफरत को अगर निभाना हो तो शिद्दत से निभाओ।
स्त्री धन के नाम पर ईमान नीचे मत गिराओ।
समानता के दम्भ संग स्वाभिमान को बचाओ।
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