यूँही एकांत के बियाबान में
उर के अन्तःस्थल में उठती शोर
कुछ पाने की है कशिश
कुछ खो देने का बिछोह।
कुछ बदल देने की कवायद,
कुछ ना बदल पाने का अफसोस।
मन ही मन में होती हैं स्वयं से बातें,
न जाने ये कैसी है अनदेखी मुलाकातें।
बस यही हर ओर।
एकांत के बियाबान में
मन में उठती ये कैसी छटपटाहट,
अपनी विवशताओं और असमर्थताओं पर
ये कैसी मन में पलती कसमसाहट
रिश्तों में बढ़ती स्वार्थपरता
कम होती संवेदना
पर मन में उठती ये कैसी कुलबुलाहट
बस यही हर ओर।
एकांत के बियाबान में प्रश्न स्वयं से
कहाँ पड़ रहे हम कमजोर,
कहाँ क्या थी स्वयं में खामियाँ
कैसे दूर हो मन की सारी उलझनें,
कैसे खुल जाए मन की हर गाँठें,
उधेड़बुन मन में सही गलत,लाभ हानि का
और पाप पुण्य पर होती प्रतिक्रियायें
बस यही हर ओर।
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