ये उदासियाँ चिरस्थायी क्यों होती हैं
चुपके से ,दबे पाँव ,मन के किसी कोने से
निकल कर आ जाती हैं।
खुश होने की वजहें सारी जो दिखती हैं
उन्हें परे धकेल कर
मन पर हावी हो जाती हैं।
ये उदासियाँ इतनी बेरहम सी क्यों होती हैं,
लाखों जतन के बाद जो इन्हें
परे धकेला था अपने जेहन से,
जीने की और खुश रहने की अनेक वजह ढूंढी थी।
उन्हें झुठलाकर,उन्हें भरमाकर
पीछे कर जाती हैं।
और फिर मन के उसी कोने में
जहाँ ज़ख्म गहरा हैं,
उन्हें खुरचकर
ये उदासियाँ क्यों हावी हो जाती हैं।
ये उदासियाँ जब आती हैं,
सब्र धैर्य सब लेकर चली जाती हैं,
बेचैनी हावी होती है,
मन व्यथित होता है,
भरी भीड़ में भी तन्हाई का परचम होता है।
चंचलता के पीछे छिपकर,
ये हमें आजमाती हैं।
हमें झूठा साबित करने का जुगत लगाती हैं,
ये उदासियाँ खुद में बड़ी जख्म होती हैं,
जो सिवाय दर्द के कुछ नही देती हैं।
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