संभल जा इंसान!

A poem on 'World Environment Day'

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Ritika Bawa Chopra
Ritika Bawa Chopra 06 Jun, 2021 | 1 min read
worldenvironmentday

इंसान की जैसे फितरत ही बन गई है,

गलती करना और इलज़ाम दूसरों

पर लगाना,

इंसान की जैसे फितरत ही बन गई है,

गलती करना और इलज़ाम दूसरों पर लगाना,

आज इंसान कहते नहीं थक रहा,

ऐ खुदा बस कर इस कुदरत के कहर का फ़साना,

आज इंसान कहते नहीं थक रहा,

ऐ खुदा बस कर इस कुदरत के कहर का फ़साना,


लेकिन क्यों नहीं आज भी सोच पाता, 

कि क्या उसने आज भी किया बंद क़ुदरत को सताना,

लेकिन क्यों नहीं आज भी सोच पाता, 

कि क्या उसने आज भी किया बंद क़ुदरत को सताना,

सब कुछ उजाड़ रहा है और खोखला कर रहा है कुदरत का खज़ाना,

सब कुछ उजाड़ रहा है और खोखला कर रहा है कुदरत का खज़ाना,


वक़्त निकल जाने पर आह भरने से क्या फ़ायदा, 

दो आंसू बहा कर अपने गुनाहों पर पर्दा डालने से क्या फ़ायदा,

वक़्त निकल जाने पर आह भरने से क्या फ़ायदा, 

दो आंसू बहा कर अपने गुनाहों पर पर्दा डालने से क्या फ़ायदा,

जो बिखर गया है उसे अब समेटने की कोशिश करने से क्या फ़ायदा,

जो बिखर गया है उसे अब समेटने की कोशिश करने से क्या फ़ायदा,


पेड़ों को अपने मतलब के लिए काटते समय यदि एक पल को सोच लिया होता,

पेड़ों को अपने मतलब के लिए काटते समय यदि एक पल को सोच लिया होता,

तो आज इंसान ज़िन्दगी बचाने के लिए ऑक्सीजन तो न तरस रहा होता,


किसने सोचा था कि कुदरत की अनमोल देन नदियों में बहता मुफ़्त पानी बोतलों में बिकने लगेगा,

किसने सोचा था कि कुदरत की अनमोल देन नदियों में बहता मुफ़्त पानी बोतलों में बिकने लगेगा,

किसने सोचा था कि सदियों से पेड़ों द्वारा मुफ़्त मिलने वाला ऑक्सीजन सिलिंडरों में बिकने लगेगा,


हवा और पानी तो छिन ही गए हैं,

हवा और पानी तो छिन ही गए हैं,

बस पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक न जाए,


भूकम्प भी कुदरत का एक इशारा है,

भूकम्प भी कुदरत का एक इशारा है,

अब भी संभल जा इंसान इससे पहले सब कुछ तेरे हाथ से निकल जाए!


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