चारों तरफ होली के गुलाल उड़ रहे थे।सभी रंगों से सराबोर,सभी के चेहरों से खुशी झलक रही थी।एक ओर जहां सब तरफ खुशी का माहौल था वहीं दूसरी तरफ कल्याणी उदास सी सादे कपड़े पहने अपने कमरे में बैठी थी।जानती थी रंगों पर उसका कोई अधिकार नहीं था अब।रह रह कर पिछली होली याद आ रही थी जब बलविंदर के साथ जीभर कर होली खेली थी।होली पर विशेष तौर पर छुट्टी लेकर आते थे बलविंदर।हमेशा कहते थे,कल्याणी तू मुझे रंगों में सजी बहुत सुंदर लगती है।हमेशा ऐसी ही रहना।
लेकिन 2 महीने पहले जीवन के सारे रंग बदरंग हो गए।बॉर्डर पर शहीद हो गए बलविंदर।उस दिन के बाद से कल्याणी ने रंगों से नाता तोड़ लिया।कितना समझाया सबने शहीद की बीवी कभी विधवा नहीं होती वो अमर सुहागन कहलाती है।लेकिन कल्याणी न मानी।तभी लगा जैसे बलविंदर कह रहे हों,कल्याणी तुझे ऐसे देखकर मेरी आत्मा को शांति नहीं मिल रही।तू रंगों में ही अच्छी लगती है।कल्याणी को महसूस हुआ,उसकी जिद बलविंदर की आत्मा को कितनी तकलीफ दे रही है और उसने निश्चय किया कि अब वह फिरसे बलविंदर की सुहागन बनकर रहेगी।
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